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________________ 118 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व का जो कोई भी कार्य (पर्याय) सम्पन्न होता है, उसमें पाँच प्रकार की स्थितियाँ बनती ही बनती हैं, जिनको पाँच समवाय के रूप से जिनवाणी में बताया गया है। उनमें चार समवाय तो वस्तु के स्वयं के ही परिणमन होते हैं, लेकिन एक निमित्त नाम का समवाय उस समय का अन्य द्रव्य का परिणमन होता है। यह ही सहज बनने वाला निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध होता है, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। इसप्रकार की अनिवार्यता सहजरूप से बनती ही बनती है, फिर भी कार्य संपन्न करते हुए द्रव्य के कार्य में निमित्त नाम के समवाय का कोई भी किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होता - ऐसी वस्तुस्थिति है, कार्य संपन्न होने की वस्तुगत व्यवस्था है। उक्त वस्तुगत व्यवस्था को श्रद्धा में रखकर जीव के भावकर्मों के साथ द्रव्यकर्मों के उदय की अनिवार्यता को समझने से इस विषय का समाधान सहज रूप से हो जावेगा। भावकर्म तो सचेतन जीव की पर्याय है और द्रव्यकर्म का उदय अचेतन पुद्गलद्रव्य की पर्याय है। एक समयवर्ती दोनों के एक सरीखे परिणमन को ही परस्पर होने वाला निमित्त नैमित्तिक संबंध कहा जाता है । उसमें जीव के भावकर्म को नैमित्तिक कहा जाता है और द्रव्यकर्म उदयकाल के अनुभाग (उदय) को निमित्त कहा जाता है। एक-दूसरे में हस्तक्षेप किये बिना की इस स्थिति को अनिवार्य समझना चाहिये । उपरोक्त स्थिति समझने के पहले जीव में उत्पन्न होनेवाली पर्याय की स्वभाविक स्थिति समझनी चाहिये। आत्मा एक द्रव्य है, वह अनंत गुणों का अभेद एक पिंड है, उस अभेद द्रव्य के परिणमन को ही पर्याय कहते हैं। उस द्रव्य की स्थिति एक तो त्रिकाल ध्रुव रहने रूप स्थिति है तथा दूसरी एक समयवर्ती परिणमन, जो हर समय उत्पन्न होती है और दूसरे समय उसका अस्तित्व नहीं रहता ऐसी पर्याय है। निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व विकार का प्रगटीकरण तो वर्तमान की पर्याय में हुआ है। उस विकार का अस्तित्व न तो ध्रुव रूपी खजाने में था और न पूर्व की पर्याय में था क्योंकि पूर्व पर्याय का तो व्यय होकर ही वर्तमान पर्याय हुई है और आनेवाले समय में तो उसका अस्तित्व ही नहीं रहता अर्थात् दूसरे समय में तो सहजरूप से ही अस्तित्व नहीं रहेगा। 119 तात्पर्य यह है कि वर्तमान के एक समयवर्ती पर्याय में ही विकार रहता है अर्थात् इस भावकर्म रूपी विकार की स्थिति मात्र एक समय की है। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा के भावसंसार की स्थिति एक समय मात्र की ही है । पांच समवाय और विकार वर्तमान उत्पन्न होनेवाली पर्याय में ही पाँच समवाय मिलकर विकार उत्पन्न होता है। इसमें चार समवाय तो स्वयं जीव की ही पर्याय मात्र एक निमित्त ही परद्रव्य की पर्याय है। उनमें से चार समवायों काकर्ता तो अकेला आत्मा है। चेतन में ही विकारी पर्याय उत्पन्न हुई है, अचेतन में नहीं। इस ही का नाम स्वभाव नाम का समवाय है। दूसरा काल है - अर्थात पर्याय में विकार होने का यही काल था । तीसरा भवितव्यता है - अर्थात् इस विकार के उत्पन्न होने में पाँचों समवाय मिलेंगे और यह विकाररूपी कार्य उत्पन्न होगा। इसको क्रमबद्धपर्याय भी कहा जाता है। चौथा समवाय पुरुषार्थ है- आत्मा के वीर्य का उत्थान अर्थात् अर्न्तप्रयत्न विकार करने का होना । इसप्रकार ये चारों तो आत्मा के अंदर होने वाले कार्य हैं। अब पाँचवें निमित्त नाम के समवाय की अनिवार्यता समझनी है। जब आत्मा में विकार होगा तो ज्ञान परलक्ष्यी ही कार्यशील होगा, ऐसे परलक्ष्य का विषय जो भी हो वही निमित्त नाम का समवाय है।
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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