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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व निमित्त और नैमित्तिक संबंध पर्याय का पर्याय से ही होता है और दोनों में परस्पर अनुकूल और अनुरूपपना होना भी अनिवार्य है अर्थात् जो कार्य सम्पन्न हो रहा होता है, निमित्त भी उसके अनुकूल ही होता है अर्थात् निमित्त और नैमित्तिक की समरूपता होती है और निमित्त के अनुरूप ही नैमित्तिक कार्य होता है। जैसे आत्मा में उत्पन्न हुए विकारी भावों के अनुकूल ही द्रव्यकर्म के अनुभाग का उदय होता है। न विकार से अधिक होता है और न कम ही होता है। कर्म उदय को आत्मा के विकार का निमित्त कहा जाता है और आत्मा के विकार को नैमित्तिक कहा जाता है। उसी समय आत्मा के विकार का निमित्त पाकर नवीन कर्म का एकक्षेत्रावगाह रूप बन्ध होता है। ऐसा बन्ध होना नैमित्तिक कार्य है और आत्मा का विकार निमित्त कहलाता है। इन दोनों में भी एक रूपता होती है।
वास्तविक स्थिति यह है कि आत्मा में विकार होने रूपी कार्य तो एक ही होता है, लेकिन उसके कर्ता दो कहे जाते हैं। एक तो वह द्रव्य जिसमें विकार (कार्य) हुआ है, वह तो वास्तविक कर्ता है, जिसको जिनवाणी में उपादान कर्ता कहा गया है। दूसरा कर्ता अन्य द्रव्य कहा जाता है, जिसका विकार उत्पन्न होने में कोई भी योगदान नहीं होता, फिर भी उसको निमित्तकर्ता कहा जाता है; क्योंकि विकार के समय, उस आत्मा ने निमित्त कहलाने वाले द्रव्य को ज्ञान का विषय बनाकर उसमें एकत्व किया है। उपादान और निमित्त के भी दो-दो भेद होते हैं। त्रिकाली एवं क्षणिक, द्रव्य को तो त्रिकाली एवं तत्समयवर्ती पर्याय को क्षणिक उपादान कहा जाता है। जैसे एक जीव द्रव्य में ही विकारी होने की त्रिकालवर्ती योग्यता है, अन्य पाँचों द्रव्यों में नहीं। इसी प्रकार मात्र पुद्गल द्रव्य में ही कर्मरूप होने की योग्यता है, अन्य किसी द्रव्य में नहीं। ये त्रिकाली उपादान-निमित्त का स्वरूप है। इसीप्रकार जीवद्रव्य
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
121 की पर्याय जो विकारी हुई है, उस समयवर्ती उस पर्याय की योग्यता को क्षणिक उपादान कहा गया है, इसी को उपादान कारण भी कहा जाता है। पुद्गल द्रव्य की जिन कर्मवर्गणाओं का उदय काल समाप्त हो गया है। मात्र उन वर्गणाओं की तत्समयवर्ती पर्याय की योग्यता को विकार होने का क्षणिक निमित्त कहा जाता है, इसी को निमित्त कारण कहा जाता है।
कारण कार्य सम्बन्ध मात्र पर्याय का पर्याय में होता है। इसलिये त्रिकाली उपादान एवं त्रिकाली निमित्त को कारणपना नहीं होता। जिस समय पांच समवाय युक्त कार्य संपन्न होता है अर्थात् विकार उत्पन्न हुआ है; उस समय विकार रूपी कार्य तो एक ही हुआ है; लेकिन उसके कर्ता दो कहे जाते हैं। एक तो चार समवाय युक्त आत्मा की पर्याय, वह तो उपादान कारण है। और उसी समय पूर्वबंधी कर्म वर्गणाओं में से जिनका उदय काल आ गया है और आत्मा के तत्समयवर्ती विकार के अनुकूल हो, मात्र उन्हीं वर्गणाओं की पर्याय, तत्समय होने वाले विकार का निमित्त कारण बनती है; यह ही पांच समवायों में निमित्त नाम का समवाय है। इस प्रकार स्पष्ट है कि निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध हर एक द्रव्य की हर एक पर्याय का दूसरे द्रव्य की पर्याय के साथ, सहजरूप से बनता ही रहता है। समझने वाले को उपादान कारण को वास्तविक कर्ता स्वीकार कर उसकी शुद्धि करने का अभिप्राय निकालना चाहिये। क्योंकि वास्तविक (निश्चय) कर्ता वही तो है। निमित्त को कर्ता कहना तो मात्र उपचरित कथन है, उससे भ्रमित होकर अपने विकार का दोषी निमित्त को नहीं मान लेना चाहिये।
प्रश्न - लेकिन कार्य का परिचय तो निमित्त द्वारा ही कराया जाता है और जिनवाणी में भी विकार को नैमित्तिक कहकर ही समझाया गया है?