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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व तात्पर्य यह है कि उपरोक्त प्रकार के समस्त विकारी भावों की उत्पत्ति के मूल कारण का अभाव किये बिना, जो कुछ भी अर्थात् कषाय की मंदतारूप व्यवहार चारित्र के भाव एवं तत्संबंधी क्रियाएँ की जावे, तो भी उनसे संसार का अभाव नहीं हो सकेगा; हाँ ! इतना अवश्य है कि कषाय मंदता के भाव करेगा तो, एक-दो देवादि के भव प्राप्त करने के पश्चात् क्रमश: परिभ्रमण करता हुआ निगाद को प्राप्त करेगा और अशुभभाव करेगा तो सीधा नरकादि गति में होता हुआ अंतत: निगोद को प्राप्त करेगा, वहाँ से तो पुन: त्रस राशि प्राप्त होना असम्भव नहीं तो दुर्लभ अवश्य है। इसलिये शीघ्रता के लोभ में अथवा सरल लगने के कारण सरलमार्ग के लोभ में अथवा विपरीत मार्ग बतानेवाले प्रखर वक्ता के उपदेशों से प्रभावित होकर, विपरीत श्रद्धा पोषकमार्गग्रहण नहीं हो जावे इसकी सावधानी रखना चाहिये। अथवा किञ्चित् कषाय की मंदता से प्राप्त शांति लगने से, उसी को सत्यार्थ मार्ग मानकर, मार्गभ्रष्ट नहीं हो जाना चाहिये।
तात्पर्य यह है कि सच्चा मार्गतो वीतरागता अर्थात् जहाँ रागादि का अंश मात्र भी न रहे, वही सत्यार्थ मार्ग है- ऐसी श्रद्धा दृढ़ रहनी चाहिये। और वीतरागता तो आत्म-स्वभाव में स्थिर होने से ही हो सकेगी। यह तो प्रत्यक्ष दिखता हुआ सत्य है। वीतरागता का प्रारम्भ स्वलक्ष्यी ज्ञान होकर स्वरूप में एकाग्र हुए बिना नहीं हो सकता; और ज्ञान का स्व की ओर आकर्षित होना, स्व में अपनेपन की श्रद्धा जाग्रत हुए बिना नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि कोई कुछ भी कहे/ समझावे, कुतर्कों द्वारा सिद्ध भी करदे, तो भी ऐसी दृढ़श्रद्धा होना चाहिये कि "एक होय त्रण काल में, परमारथ नो पंथ" अर्थात् मार्ग तो अन्य है ही नहीं, ऐसी दृढ़तम श्रद्धा जाग्रत होकर, रुचि का केन्द्र एक मात्र ध्रुव ज्ञायक में अपनापन ही रहना चाहिए।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
द्रव्यकर्मों का सम्बन्ध नहीं माना जावे तो?
प्रश्न - भावकर्म तो जीवकृत भाव है। जीव ही उनका कर्ता है। जीवचेतनद्रव्य है और अपने भाव करने के लिए स्वतन्त्र है। पर्याय की योग्तानुसार भावकर्मों का उत्पाद होता है, कर्म के उदयानुसार नहीं। तब फिर उनका निमित्तपना अनिवार्य क्यों ?
उत्तर-अनिवार्यता हमारे बनाने से नहीं बनती। यह तो किसी. के द्वारा बिना बनाई गई विश्व की सामान्य व्यवस्था है। विश्व में छह द्रव्य हैं, सभी द्रव्यों के प्रतिसमय स्वतन्त्र परिणमन होते हैं विश्व की ऐसी ही व्यवस्था है कि उनके स्वयंकृत परिणमनों में एक-दूसरे में किसी प्रकार का हस्तक्षेप किये बिना ही सभी परिणमन करते रहते हैं; फिर भी, एक-दूसरे का परिणमन, किसी भी द्रव्य के परिणमन के अनुकूल सहजरूप से पड़ जाता है। जिसके अनुकूल पड़ गया हो, ऐसे होने वाले परिणमन को उस द्रव्य का निमित्त कह दिया जाता है। ऐसी ही विश्व की व्यवस्था है। उनमें पांच तो अचेतन द्रव्य हैं। अत: वे दूसरे के अनुकूल परिणमन करें, ऐसा वे जानते ही नहीं। इससे स्पष्ट है कि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बनाने से नहीं बनता यह तो सहजरूप से बनने वाली विश्वव्यवस्था है।
तत्त्वार्थसूत्र में भी छहों द्रव्यों के आपस में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध अध्याय ५ के सूत्र १७ से सूत्र २२ तक बताये गये हैं। वहाँ उपकार शब्द सभी सूत्रों में निमित्त के अर्थ में आया है। अत: मात्र भला करने के अर्थ में नहीं समझना चाहिए। मूल ग्रन्थ का अध्ययन कर विस्तार से समझना चाहिए। यहाँ तो हमारा विषय निमित्त की अनिवार्यता को स्पष्ट करना है।
विश्व की एवं वस्तुगत व्यवस्था ऐसी भी है कि हर एक वस्तु