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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व उपरोक्त समस्त चर्चा का सार यही है कि अज्ञानी को अनादि से चली आ रही विपरीत श्रद्धा ही वास्तविक स्वभाव अथवा परिणमन को समझने में मूल बाधक कारण है। इसलिये पर में अपनेपन की मान्यता का अभाव करना ही मूल कर्तव्य है।
उपरोक्तकथन सेऐसालगता है कि अलग-अलगगुणों की अपेक्षा, विकार उत्पत्ति में समयभेद होता होगा; लेकिन ऐसा नहीं है। परिणमन तो अभेद द्रव्य का अभेद होता है अर्थात् सभी गुणों का कार्य एकसमय के एक ही परिणमन में होता है, समयभेद नहीं होता। लेकिन समझाने में तो क्रम करके ही समझाना पड़ता है। अन्य कोई उपाय नहीं है।
ज्ञानी को ज्ञायक में अपनापन होने से, राग के ज्ञान से भी रागादि उत्पन्न नहीं होते। इसी को दृढ़ करते हुए समयसार की गाथा ३६९ की टीका के अन्त में आचार्यश्री ने स्वयं प्रश्न उठाकर उत्तर दिया है। वह इस प्रकार है
"प्रश्न - यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टि को विषयों में राग किस कारण होता है?
उत्तर - किसी भी कारण से नहीं होता। प्रश्न - तब फिर राग की खान (उत्पत्ति स्थान) क्या है ?
उत्तर - राग-द्वेष-मोह जीव के ही अज्ञानमय परिणाम हैं, (अर्थात् जीव का अज्ञान ही रागादि को उत्पन्न करने की खान है।) इसलिये वे राग-द्वेष-मोह विषयों में नहीं हैं; क्योंकि विषय परद्रव्य हैं,
और वेसम्यग्दृष्टि में भी नहीं हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के अज्ञान का अभाव है। इसप्रकार राग-द्वेष-मोह विषयों में न होने से और सम्यग्दृष्टि के भी न होने से वे हैं ही नहीं।"
इसप्रकार सम्यक्त्वी को द्रव्यदृष्टि के सद्भाव में, रागादि का संयोग ही नहीं होता; फलतः रागादि भी उत्पन्न नहीं होते।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
115 तात्पर्य यह है कि आचार्य श्री का अभिप्राय पर्यायदृष्टि (पर में एकत्व करने की दृष्टि) छुड़ाकर, द्रव्यदृष्टि कराने का है- ऐसा समझना चाहिये।
इसी का समर्थन गाथा ३४४ की टीका के अंतिम पैराग्राफ में भी किया है। वह इसप्रकार है- “इसलिये, ज्ञायकभाव सामान्य अपेक्षा से ज्ञानस्वभाव में अवस्थित होने पर भी, कर्म से उत्पन्न होते हुए वे मिथ्यात्वादि भावों के ज्ञान के समय, अनादिकाल से ज्ञेय और ज्ञान के भेदविज्ञान से शून्य होने से, पर को आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव) विशेष अपेक्षा से अज्ञानरूप ज्ञान परिणाम को करता है। (ज्ञान का अज्ञानरूप परिणमन करता है)"
समयसार गाथा २ की टीका द्वारा भी यह बताया गया है कि जीव (आत्मा) तो जानता हुआ ही परिणमता रहता है और ऐसा तो वस्तुगत स्वभाव है, वह न तो कभी रुक सकता है और न विपरीत परिणम सकता है। और जानने की क्रिया इसप्रकार होती है कि स्वसंबंधी एवं परसंबंधी ज्ञेयाकारों रूप ज्ञानपर्याय स्वयं ही प्रवर्तती है। इसप्रकार आत्मा अपनी ज्ञान पर्याय को ही जानता है, अन्य प्रकार से जानना हो ही नहीं सकता। क्योंकि आत्मा अपनी पर्याय द्वारा ही तो जानेगा
और जानना भी स्वक्षेत्र के बाहर जाकर होता नहीं। तात्पर्य यह है कि प्राणी मात्र के जानने की प्रक्रिया तो इस ही प्रकार वर्तती है लेकिन अज्ञानी आत्मा अपनी विपरीत मान्यता के कारण ज्ञानपर्याय के उत्पन्न होते ही, स्व के अज्ञान के साथ पर की ओर झुक जाता है और पर से एकत्व कर लेता है। बस एकमात्र यही मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति का बीज है। इसी के फलस्वरूप अज्ञानी को अनेक प्रकार के भाव अर्थात् भावसंसार खड़ा हो जाता है।