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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व समझने के लिये प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार का अध्ययन करना चाहिये। वर्तमान प्रकरण में तो हमारा विषय पर्याय में विकार कैसे होता है यह समझना है । यह कथन भी ऐसे अज्ञानी जीवों के लिये कल्याणकारी होगा, जो संसार से भयभीत होकर, अपने कल्याण के लिये समझना चाहते हैं। अज्ञानीको विकार की उत्पत्ति किसप्रकार ?
ऐसे अज्ञानी का ज्ञान तो परलक्ष्यी होकर ही परिणमता है; अत: उसका विषय तो कोई भी परज्ञेय होता है, ऐसे परज्ञेय को उपयोगात्मक जानते ही उसमें अपनापन होने से उसमें एकत्व करके अपना मान लेता है अर्थात् अपने को उस रूप ही मानने लगता है। वास्तव में तो वह अपनी ज्ञानपर्याय में बने ज्ञेयाकार को ही जानता है; लेकिन अज्ञानी को इसप्रकार की स्थिति का न तो ज्ञान ही है और न श्रद्धा ही। फलत:ज्ञेयाकार ज्ञान को भूलकर, पदार्थकी ओर ही झपटता है और उस रूप अपने को मानकर स्वयं नाचता रहता है। इसप्रकार परद्रव्य (परज्ञेय) का संयोग होते ही उसमें अच्छे-बुरे की कल्पना कर, राग-द्वेष उत्पन्न कर लेता है। इसी अपेक्षा समयसार में ऐसे भावों को संयोगीभाव कहा गया है। वास्तव में आत्मा में न तो किसी द्रव्य का संयोग होता है और न किसी पर्याय में किसी का भी संयोग होना संभव है लेकिन मान्यता की विपरीतता के कारण अज्ञानी अपने को पररूप मानकर, मान्यता में संयोग कर लेता है। ऐसी मान्यता को ही संसार का बीज मिथ्यादर्शन मिथ्याश्रद्धा/मिथ्यात्व आदि नाम से कहा गया है। समयसार के कलश नं. १६४ का भी ऐसा ही आशय है। वह इसप्रकार है
"कर्मबन्ध को करने का कारण न तो बहुकर्म योग्य पुद्गलों से
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
113 भरा हुआ लोक है, और न चलन स्वरूप कर्म (मन-वचन-काय की क्रिया रूप योग) है, न अनेक प्रकार के करण हैं और न चेतन-अचेतन का घात है; किन्तु उपयोग भू' अर्थात् आत्मा रागादि के साथ जो ऐक्य (एकत्व) को प्राप्त होता है, वही एकमात्र (रागादि के साथ एकत्व करना ही) वास्तव में पुरुषों (आत्मा) के बन्ध का कारण है।"
उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि अज्ञानी अपने ज्ञान में बने ज्ञेयाकारों के ज्ञान को भूलकर, पर में अपनेपने की अनादिसेचली आरही मान्यता के कारण, परलक्ष्यी परिणमन में जो उपयोगात्मक ज्ञेय बने, उसी को स्व मानकर, उसी में एकता कर, उस रूप अपने को मानने लगता है। इससे विपरीत ज्ञानी को द्रव्यदृष्टि होने से, उसकी श्रद्धा में त्रिकाली ज्ञायक ही स्व के रूप में निरन्तर वर्तता है। फलस्वरूप मोह-रागादि भावों का ज्ञान होते ही बिना प्रयास के (बिना विकल्प) सहजरूप से ज्ञान के परिणमन ही दिखते हैं, मेरे में हुए ऐसा नहीं दिखता। फलतः संसार के कारणरूप मोह-रागादि भावों का आस्रव तथा बन्ध नहीं करता।
__ज्ञान तो जीव की स्वाभाविक क्रिया है, और ज्ञान का तादात्म्य ज्ञायक के साथ होने से ज्ञानपर्याय होते ही मैं तो ज्ञायक ही हूँ, ऐसी श्रद्धा को ज्ञानी दृढ़ करता रहता है। ज्ञानक्रिया का स्वभाव ही ऐसा है कि स्वएवंपरसंबंधी ज्ञेयाकारों में से जिस ओर का आकर्षण (अपनापन अथवा आसक्ति) होता है, ज्ञान उस ओर ही झुकता हुआ उत्पन्न होता है। फलतः उनके निमित्त अर्थात् पदार्थ ज्ञानोपयोग के विषय बन जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि ज्ञानी का तो अपनापन अपने ध्रुव ज्ञायक में ही है, अत: उसके ज्ञान को तो स्व की ओर झुकते हुए ही उत्पन्न होना चाहिये; लेकिन चारित्र की निर्बलता इसमें बाधक हो जाती है। फिर भी ज्ञानी श्रद्धा बनी रहने से, स्वरूप स्थिरता बढ़ाता हुआ क्रमशः पूर्णता प्राप्त कर लेता है। अज्ञानी इससे विपरीत पर पदार्थों में अपनत्व होने से, उनमें ही चिपटकर रहना चाहता है।