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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व स्व में ही रमणता अर्थात् लीन होने का है। फलत: साथ ही वर्तने वाला स्व-परप्रकाशक ज्ञान भी स्व को तो लीनता पूर्वक जानता है एवं पर को जानता तो अवश्य है, लेकिन लीनता बिना मात्र जानता ही है। जिसमें लीनता होती है, सर्व सम्पदाओं, सामर्थ्यो के भोग का लाभ भी उसी को मिलता है। फलतः अनन्त अनाकुल सुख का अनुभव भी उसी आत्मा को होता है।
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तात्पर्य यह है कि अनाकुल अतीन्द्रिय आनन्द आदि का भोग सर्व सामर्थ्यो सहित सिद्ध भगवान को होता रहता है।
इसप्रकार जीव नामक पदार्थ का स्वभाव तो सिद्ध भगवान के समान ही है। अर्थात् सिद्ध भगवान का ध्रुव के समान पर्याय में भी सादि अनन्तकाल तक स्वभाव रूप परिणमन होता रहता है।
संसारी अज्ञानी जीव का परिणमन उपरोक्त प्रकार से बिल्कुल विपरीत होता है। शिष्य का प्रश्न भी है कि ऐसा क्यों होता है। अतः इसको समझने की चेष्टा करेंगे।
अज्ञानी का ज्ञान भी स्व-परप्रकाशक लक्षण सहित वर्तता रहता है, वह तो वस्तुगत स्वभाव है; लेकिन उसी के साथ श्रद्धा एवं चारित्र गुण तो विपरीत वर्तते हैं। फल यह होता है कि अज्ञानी को परसंबंधी ज्ञेयाकारों का जो ज्ञान हुआ; अज्ञानी को स्व की तो पहिचान ही नहीं होती, फलतः श्रद्धा उन्हीं को स्व (अपना) मान लेती है। तब उसी समय का ज्ञान भी पर को ही स्व जानने लगता है एवं चारित्र भी उसी रमणता करने का प्रयास करता है; लेकिन असफल होने से हर समय आकुलता का वेदन करता है। अज्ञानी की हर समय पर्याय के परिणमन की ऐसी ही स्थिति है। इसी का नाम भावसंसार है। ऐसे भावसंसार के फल में चतुर्गति भ्रमण होता है।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
छद्मस्थ के ज्ञान का परिणमन लब्धि एवं उपयोगात्मक
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ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी सभी छद्मस्थ जीवों के ज्ञान के परिणमन की स्थिति ऐसी निर्बल होती है कि उनको प्राप्त क्षयोपशम के अनुसार स्व एवं पर विषयों का ज्ञान तो हर एक पर्याय में वर्तता है; लेकिन उनमें से मात्र एक ही विषय का तो उपयोगात्मक ज्ञान कर पाता है, बाकी समस्त विषय पर्याय में रहते हुए भी लब्धि में रह जाते हैं, उनका उपयोगात्मक ज्ञान नहीं हो पाता। उपयोगात्मक विषय का तो ज्ञान होते हुए अनुभव में भी आता है; बाकी लब्धिगत विषयों के ज्ञान का अनुभव होता हुआ मालूम नहीं पड़ता। इसके साथ ही छद्मस्थ ज्ञान की और भी पराधीनता है कि परसंबंधी उपयोगात्मक ज्ञान भी किसी इन्द्रिय के द्वारा होता है अर्थात् उसका जानना भी इन्द्रिय के आधीनता पूर्वक प्रवर्तित होता है। ऐसी स्थिति छद्मस्थं ज्ञान की है।
अज्ञानी की श्रद्धा तो पर में अपनेपन की ही होती है। इस विपरीतता के कारण उसका स्व-परप्रकाशक ज्ञान, मात्र पर प्रकाशक और परलक्ष्यी होता हुआ परिणमता रहता है। प्राप्त क्षयोपशम के अनुसार उसके परप्रकाशक ज्ञान के विषय तो अनेक होते हैं और इसकी श्रद्धा ऐसी होती है कि मुझे सुख तो इनमें से ही मिलेगा। फलत: जब वह अपने सुख के लिये उनकी ओर झपटता है तब ज्ञान मात्र एक ही इन्द्रिय के विषय को जान पाता है, बाकी विषय रह जाते हैं। ऐसी पराधीनता के कारण वह अत्यन्त दुःखी होता है, फलतः शीघ्र- शीघ्र विषय परिवर्तन करता है, फिर भी तृप्ति प्राप्त नहीं होने से एवं गृद्धता तीव्र होने से महादुःखी वर्तता हुआ संसार भ्रमण करता रहता है।
इन्द्रिय विषयों का हेयपना और अतीन्द्रियज्ञान की उपादेयता
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