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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व मानना यह तो आगम अपेक्षा कथन है। मात्र उनको पर मान लेने से निर्विकल्पता नहीं होती। लेकिन प्रथम उनमें परत्व भाव उत्पन्न हुए बिना भी अध्यात्म के कथन कार्यकारी नहीं होते। इसलिये आत्मकल्याण का हेतु तो, स्व अर्थात् अपने त्रिकाली ध्रुववस्तु के अतिरिक्त सभी को पर मानकर, सब से स्वपने का आकर्षण छोड़ने योग्य है। ध्रुव की दृष्टि में तो अन्य कोई स्व है ही नहीं, उसमें ज्ञान एकाग्र होने पर तो विकल्प (राग) होने का अवकाश ही नहीं रहता। ध्रुव से स्खलित होते ही ज्ञान बर्हिलक्ष्यी हो जाता है और उसमें तो अनेकता ही अनेकता होने से रागी जीव को विकल्प (राग) उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिये रागी जीव को ध्रुव में अपनापन मानने के लिये ही आचार्य ने बल दिया है। ध्रुव में अपनापन होना ही, ध्रुवदृष्टि-द्रव्यदृष्टि हैं। भगवान सिद्ध को तो स्व एवं पर सम्बन्धी अनन्तानन्त ज्ञेयों के ज्ञेयाकार एक साथ ज्ञान में वर्तते हैं, लेकिन उनको मोह रागादि का अभाव होने से राग का उत्पाद होता ही नहीं। इसलिये सिद्ध है कि मात्र अनेकता को जानना राग का कारण नहीं वरन् राग का सद्भाव है । तथा छद्मस्थ रागी का ज्ञान एक समय एक ओर ही एकाग्र हो पाता है। इसलिये रागी को उपदेश दिया जाता है, कि जिसके जानने में रागोत्पत्ति का अवकाश हो' वे सब पर मानने योग्य हैं। अतः उनसे आकर्षण तोड़कर एकमात्र ध्रुव को ही स्व मान, रुचि का केन्द्र बनाकर उसी में आकर्षण उत्पन्न कर और ज्ञान को एकाग्र योग्य है।
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इसप्रकार आत्मा में बसे अनन्त गुण अभेद रूप से आत्मा में विद्यमान हैं उनका ज्ञान भी राग का उत्पादक नहीं होता, लेकिन उन्हीं गुणों को भेदपूर्वक समझने में राग उत्पन्न हो जाता है। इसलिये भेद का भी निषेध किया जाता है। ज्ञानी निर्विकल्प दशा होते ही अनन्तानुबन्धी गुणों की पर्यायें आंशिक शुद्ध होकर, आत्मा
भावात्मक
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
के साथ अभेद होकर निरन्तर वर्तती रहती हैं और ज्ञान के स्वपरप्रकाशक स्वभाव में उनका ज्ञान भी वर्तता रहता है तो भी विकल्प उत्पन्न होते हैं। लेकिन ज्ञानी जब पुनः निर्विकल्प अनुभव करता है तो उस समय उनके ज्ञान का विषय अभेद आत्मा रहता है, ज्ञान में से ध्रुव को निकालना नहीं पड़ता; ज्ञानी को अनन्त गुणों एवं आंशिक निर्मल हुई पर्यायों सहित अभेद-अखण्ड आत्मा ज्ञान का विषय बनता है। ज्ञानी के अस्थिरता होने से अबुद्धिपूर्वक राग उत्पन्न होता रहता है, विकल्प नहीं ।
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उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि ज्ञान का स्व को जानना अथवा पर को जानना तथा एक को जानना अथवा अनेक को जानना राग उत्पन्न नहीं करता, वरन् रागी जीव को जितना और जैसा मोह रागादि भाव होता है उनके साथ जब ज्ञान वर्तता है तो मोह रागादि के अनुसार राग आदि उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिये अज्ञानी को ज्ञानी बनाने हेतु आचार्यों का करुणा भरा उपदेश है कि समस्त विश्व भर
अपनेपन का सम्बन्ध तोड़कर, अकेले अपने ध्रुव स्वभाव की शरण ले; जिसकी शरण लेते ही संसारी भावों का अभाव होना प्रारम्भ हो जायेगा ।
शिष्य का प्रश्न है कि पहले परद्रव्यों से अपनत्व तोड़ना अथवा रागादि भावों से ?
ध्रुव की दृष्टि की अपेक्षा तो, आत्मा के लिये दोनों ही पर हैं, इसलिये उपदेश तो एकमात्र ध्रुव में ही अपनापन करने का दिया जाता है । अत: अपनत्व तोड़ने के लिये तो मात्र परद्रव्य ही नहीं, वरन् परभाव (रागादि) तो हैं ही साथ ही गुण भेदों से भी अपनत्व तोड़ने का विधान है । ऐसा होते हुए भी अज्ञानी को ज्ञानी बनाने के लिये उपदेश में तो क्रम पड़ता ही है तथा क्रम करना भी पड़ता है। इस अपेक्षा से ही