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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व का मिश्रण हो जाने से वह परिणमन अकेले ज्ञान का ही नहीं रहता अर्थात् ज्ञान ही अन्य गुणों रूप दिखने लगता है। दूसरे गुणों के कार्यों को भी ज्ञान ही तो प्रकाशित करता है, फलत: जीव ही दूषित दिखने लगता है। जो जीव अनादि से अज्ञानी रहता हुआ चलता चला आ रहा है, उस जीव की पर को स्व मानने की एवं अपना सुख पर में है ऐसी विपरीत मान्यता भी अनादि से ही चलती आ रही है और उसके साथ वर्तने वाला ज्ञान भी विपरीत श्रद्धा के कारण पर को ही स्व के रूप में जानता आ रहा है। इसप्रकार की विपरीत मान्यता की चैन (श्रृंखला) अनादि से ऐसी ही चलती आ रही है। ऐसी स्थिति में ज्ञान के जानने का स्वभाव दूषित होकर ही परिणमित होता है। इसमें दोष तो है श्रद्धा का, लेकिन ज्ञान के सिर मढ़ दिया जाता है। इसप्रकार ज्ञान का पर की ओर आकृष्ट होने का कारण, पर को अपना मानने की श्रद्धा ही है।
तात्पर्य यह है कि मिथ्या मान्यतारूपी चैन अज्ञानी की अगर एक बार भी टूट जावे और मान्यता यथार्थ हो जावे तो ज्ञान तो पवित्र है ही, वह भी स्व को स्व, पर को पर जानता हुआ ही उत्पन्न होने लगेगा। सारांश यह है कि श्रद्धा ने जिसको स्व (अपना) मान लिया तो आत्मा के अन्य गुण भी श्रद्धा के माने हुए स्व की ओर ही आकर्षित होते हुए कार्यशील हो जाते हैं। लेकिन जब अज्ञानी पर में अपनापन मान लेता है, तब मिथ्याज्ञान पर की ओर आकृष्ट होकर परिणमत होता रहता है।
सारांश ऐसा है कि सिद्ध भगवान के ज्ञान का भी स्व के साथ पर संबंधी ज्ञेयाकारों को जानते हुए भी, उनके साथ मात्र जानने रूप पवित्र संबंध रहता है। स्वपना (अपनापना) अपने मैं ही होने से एवं अपना आत्मा ही सुख का भण्डार है ऐसी श्रद्धा होने से आकर्षण तो
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
103 मात्र आत्मा का ही वर्तता है एवं अनंत गुण भी स्व में ही विश्राम पाते हैं, फलतः आत्मा स्व में तो तन्मय/लीन होते हुए जानता रहता है और पर का जानना सहज होता रहता है, लेकिन आकर्षण के अभाव में मात्र तन्मयता रहित जानना होता है।
अज्ञानी का जानना सिद्ध भगवान की जाननक्रिया के विपरीत, पर को ही स्व एवं सुख का भण्डार मानने की श्रद्धा के साथ, पर में ही आकृष्ट रहते हुए परिणमता रहता है।
अज्ञानी को न तो ज्ञान ही है और न श्रद्धा ही है कि मेरी जाननक्रिया अपने ज्ञान में बने परद्रव्यों के ज्ञेयाकारों को ही जानने तक मर्यादित है। ज्ञान परद्रव्यों को तथा उनके परिणमनों को जानने एवं सुख के लिये अपने प्रदेशों को छोड़कर पर तक कैसे पहुंचेगा? कोई भी द्रव्य अपना क्षेत्र छोड़कर बाहर जाता ही नहीं तथा जा भी नहीं सकता। उनको अपना मानने से उनमें से सुख प्राप्त करने की मान्यता, किसप्रकार सफल हो सकेगी? असम्भव है। फिर भी अज्ञानी को इसकी श्रद्धा एवं ज्ञान नहीं होता। इसलिये जबतक अज्ञानदशा रहेगी तब तक परद्रव्यों की ओर का आकर्षण छूट नहीं सकता और अपनी पर्याय में मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती ही रहेगी। रागादि से अपनापन तोड़ना अथवा
परद्रव्यों से तोड़ना? प्रश्न-जिनवाणी में तो रागादि भावों से अपनापन तोड़ने का भी विधान है; अत: प्रथम परद्रव्यों से अपनापन टूटता है या रागादि से?
उत्तर - हे भव्य ! अध्यात्म में तो अपना प्रयोजन सिद्ध करने में जो बाधक हो, वे सब पर माने गये हैं। प्रदेश भिन्नता वालों को पर