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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व तात्पर्य यह है कि वस्तुगत स्वभाव अपनी विशेषताओं सहित निरंतर ध्रुव में वर्तता ही रहता है कि वस्तु अपनी सामर्थ्य सहित कूटस्थ पड़ी न रहकर, निरंतर जाज्वल्यमान अनंतचटुष्टय की सामर्थ्यो सहित ध्रुव वर्तती रहती है। ऐसा कथन तो ध्रुव की महिमा (आकर्षण) उत्पन्न करने के लिए कहा गया है। पर्याय जब भी पर का आकर्षण नष्ट कर, एकमात्र ध्रुव जो समस्त सामर्यों सहित लहलहाता हुआ विद्यमान है, उसकी ओर आकृष्ट एवं एकाग्र होकर अन्तर्मुहूर्त से अधिक ध्रुव का शरण लेकर लीन हो जावेगी। तब ध्रुव की समस्त सामर्थ्य, उत्पादव्यय स्वभावी पर्याय में प्रगट होकर, आत्मा स्वयं वीतरागी सर्वज्ञ होकर अनन्त अतीन्द्रिय आनंद का उपभोक्ता बनकर अनंत काल तक सुखी बने रहते हुए सिद्ध परमात्मा बन जावेगा।
अनंत सामर्थ्यो सहित त्रिकाल वर्तते हुए अपने स्वभाव की श्रद्धा एवं उसी की शरण लेकर एकाग्र होने की ऐसी अचित्य महिमा है, ऐसा समझकर सिद्ध भगवान के ज्ञान के स्व-परप्रकाशक परिणमन को समझना चाहिये।
यह तो हमने समझा ही है कि पांचवें नम्बर की विशेषता के अनुसार जीव का ज्ञान ही स्वयं, स्व-पर के ज्ञेयाकारों सहित त्रिकाल वर्तता रहता है। लेकिन सिद्ध भगवान के आत्मा ने पूर्वदशा में वर्तने वाले मिथ्यात्व एवं चारित्रमोह संबंधी रागादि का, सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा आत्यान्तिक अभाव कर दिया और परसंबंधी आकर्षणों का भी आत्यान्तिक अभाव कर दिया। अपनी परिणति को सब ओर से समेटकर, उपयोग को स्वभाव में ही एकाग्र कर, निर्विकल्पता सहित लीन हुए, उसी समय समस्त सामर्यों की प्रगटता हो जाती है। और वह पर्याय भी अजर-अमर होकर अनन्त काल तक वैसा ही उत्पादव्यय करती रहती है। इस दशा के लिए सिद्ध भगवान के ज्ञान को कुछ
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
101 भी करना पड़ता नहीं। स्व-पर में एकत्व करनेवाला दर्शनमोह एवं स्थिरता में बाधक ऐसा चारित्रमोह दोनों नाश होकर, पर्याय पूर्ण शुद्ध होकर उत्पाद होने से, पर का आकर्षण ही नहीं रहा, फलत: स्व एवं पर सम्बन्धी समस्त ज्ञेयाकारों के ज्ञाता होते हुए भी, अपने आप में तन्मय होकर परिणमते रहते हैं। इसी दशा को भेदपूर्वक समझाना हो तो व्यवहार से ऐसा कहा जाता है कि स्व को तो तन्मयता पूर्वक जानते है एवं पर को तन्मयता रहित जानते हैं सिद्ध भगवान के ज्ञान की स्वपर प्रकाशता इसी प्रकार सादि अनन्त काल तक अनवरत रूप से परिणमती रहती है।
संसारी के ज्ञान का पर की ओर
आकृष्ट होने का कारण ? प्रश्न - ज्ञान का स्वभाव स्व-परप्रकाशक होने पर भी तथा आत्मा के ज्ञान में भी स्व-पर दोनों एक साथ ज्ञेयाकार रूप में रहने पर भी, संसारी का ज्ञान मात्र पर की ओर ही आकर्षित होकर क्यों झुक जाता है ?
उत्तर-यह बात सत्य है कि आत्मा के ज्ञान में ही ऐसी सामर्थ्य है कि स्व के साथ पर को भी जाने। ज्ञान के अतिरिक्त आत्मा के अनन्त गुणों में से अन्य किसी में भी यह सामर्थ्य नहीं है। ज्ञान का स्वभाव भी मात्र जानने का ही है; लेकिन जिसको जाना हो उसको अपना मानना आदि का कार्य नहीं है। ज्ञान का पवित्र कार्य तो जैसा हो वैसा जानना मात्र ही है।
लेकिन ज्ञान के परिणमन के समय आत्मा के अन्यगुणों का भी परिणमन होता है। वस्तु तो अभेद है, उसका परिणमन भी अभेद एक ही होता है। अत: ज्ञान के परिणमन में अन्य गुणों के विपरीत परिणमनों