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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व उड़ जाते हैं और अपनी पर्याय में उन सामर्थ्यो को प्रगट करने की तीव्र रुचि जाग्रत हो जाती है। अब उसको अपनी पर्याय में वर्तने वाले अनेक प्रकार के भाव तथा शरीरादि सब ज्ञेय मात्र स्वतंत्र वर्तते हुए और पर के परिणमन विश्वास में आने लगते हैं। तात्पर्य यह है कि परद्रव्य तो पर है ही, शरीर के परिणमन भी पुद्गल द्रव्य के परिणमन दिखने लगते हैं। साथ ही पर्यायगत् अनेक प्रकार के भाव भी परकृतभाव लगने लगते हैं। उनके प्रति एकत्व-ममत्व-कर्तृत्व- भोक्तृत्व के विकल्प उठते हुए भी, वे सब परद्रव्य के परिणमन लगने लगते हैं। उनके प्रति कर्तृत्व आदि की बुद्धि नहीं रहती । सारांश यह है कि आत्मार्थी विकल्पात्मक ज्ञान के निर्णय में, परद्रव्यों के परिणमनों के साथ एवं अपने पर्यायगत भावों का स्वामित्व एवं कर्तृत्व बुद्धि हटकर, ज्ञातृत्वबुद्धि प्रगट हो जाती है। उनके परिणमनों के प्रति द्वेष अथवा राग दृष्टि पूर्वक जानना नहीं होकर, सिद्ध भगवान के समान मध्यस्थ भावपूर्वक ज्ञातृत्वबुद्धि हो जाती है।
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सिद्ध भगवान को पर का जानना किसप्रकार होता है ?
प्रश्न- ज्ञान का तो स्वभाव ही स्व-परप्रकाशक है, तो सिद्ध भगवान को भी पर परिणमनों संबन्धी ज्ञान किसप्रकार होता है। जिससे उन्हें रागादि उत्पन्न नहीं होते ?
उत्तर - स्व-पर के ज्ञान सहित जानने रूप परिणमते रहना, यह तो वस्तुगत स्वभाव है, उसके बिना जीव का जीवत्व ही नहीं रह सकता । अतः स्व-पर के जानने रूप परिणमते रहना तो सिद्ध एवं संसारी सबको निरन्तर रहता ही है। ध्रुव के भण्डार में वह सामर्थ्य रहते हुए भी, उसका प्रकाशन (प्रगट होना) तो ध्रुव भण्डार नहीं कर
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
सकता पर्याय ही करती है। प्रगट हुए बिना उसका लाभ नहीं मिल
सकता ।
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सिद्ध भगवान को भण्डार में भरी हुई सभी सामर्थ्य पर्याय में प्रगट हो जाती है। हमारी पर्याय में, वैसी प्रगटता नहीं होती। अज्ञानी को ऐसी श्रद्धा नहीं होती, फिर भी वह सिद्ध भगवान की ज्ञान पर्याय की प्रगटता को अपनी मान्यता से मापना चाहता है । भण्डार में भरी हुई सामर्थ्यां के ज्ञान के आधार से निर्णय नहीं करता। तात्पर्य यह है कि सिद्ध भगवान को प्रगट ज्ञान की स्व पर प्रकाशकता को समझने के लिये, अपनी मान्यता को छोड़कर, वस्तु के स्वभाव की दृष्टि से अर्थात् द्रव्य की दृष्टि रखकर समझना चाहिये, तभी वह समझी जा सकेगी पर्याय की दृष्टि द्वारा समझना अशक्य है।
जीव नामक पदार्थ के वस्तुगत स्वभाव की पाँचवीं विशेषता द्वारा हमने यह समझा है कि स्वद्रव्य संबंधी समस्त ज्ञेयाकार एवं परद्रव्यों संबंधी समस्त ज्ञेयाकार, एकरूपतापूर्वक एक साथ ही ज्ञान में विद्यमान हैं अर्थात् वह ज्ञान ही समस्त ज्ञेयाकारों सहित ध्रुव में निरंतर रहता है।
त्रिकाली ध्रुव रहने वाले स्वभावों का, त्रिकाली ध्रुव परिणमन भी होता रहता है; वस्तु कूटस्थ नहीं रहती, लेकिन ऐसे परिणमन का अनुभव नहीं होता। अनुभव तो पर्यायगत परिणमन का होता है। ऐसे त्रिकाली ध्रुव के परिणमन को नियमसार में कारणशुद्धपर्याय के रूप में आचार्य श्री ने समझाया है। एवं पूज्य श्री कानजीस्वामी ने उसका विस्तारपूर्वक, स्पष्टीकरण किया है और उसका प्रकाशन भी उपलब्ध है। वह तो ध्रुव वस्तु का ध्रुव परिणमन रहने से मात्र द्रव्यदृष्टि का विषय एवं श्रद्धा का विषय है, अनुभव तो उत्पाद व्यय स्वभावी पर्याय में प्रगटता का ही होता है; और वह पर्यायार्थिक नय का विषय होकर • अनुभव में आता है।