________________
96
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
97
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व आत्मा के गुणों की पर्यायों के परिणमन क्रमबद्ध परिणमते हैं। इससे क्रमबद्ध परिणमन का सिद्धान्त एवं जीव का अकर्तृत्व स्वभाव भी सिद्ध होने के साथ सिद्ध भगवान की सर्वज्ञता भी सिद्ध होती है।
५. “वह जीव, अपने और परद्रव्यों के आकारों को प्रकाशित करने की सामर्थ्यवाला होने से जिसने समस्तरूप को प्रकाशन वाली एकरूपता प्राप्त की है। (अर्थात् जिसमें अनेक वस्तुओं के आकार प्रतिभासित होते हैं, ऐसे एक ज्ञान के आकार रूप है)" इस विशेषण द्वारा यह बताया गया है कि जीव की स्वभाविक वस्तुगत जाननक्रिया, स्व एव परद्रव्यों के प्रकाशन करने के स्वभाववाली है अर्थात् स्वद्रव्य संबंधी ज्ञेयाकार एवं परद्रव्यों संबंधी समस्त ज्ञेयाकार एकरूपता से (बिना कोई विभाजन के) ज्ञान में स्थित होकर परिणमते हैं अर्थात् सब ज्ञेयाकार स्वयं ज्ञान ही हैं। वास्तव में वे ज्ञेयाकार नहीं अपितु ज्ञानाकार ही हैं। इससे स्पष्ट होता है कि जीव को स्वद्रव्य को अथवा परद्रव्यों को अथवा उनके आकारों को जानने के लिये उनके सन्मुख नहीं होना पड़ता, वरन् ज्ञान स्वयं ही उनके आकार हो जाता है, ऐसा वस्तुगत स्वभाव है। इस प्रकार वह ज्ञान ही ज्ञाता है और ज्ञेय भी वह ज्ञान ही है। अत: वस्तुगत स्वभाव ही ऐसा है कि समस्त द्रव्य ज्ञानगत होते हैं व ज्ञान भी सर्वगत है। फलत: सर्वज्ञता तो वस्तुगत स्वभाव ही है। कर्तृत्वपना तो रहता ही नहीं वरन् जानने की आकांक्षा की संभावना भी समाप्त हो जाती है।
६.“वह जीव, अन्य द्रव्यों के विशिष्ट गुण-अवगाहन-गतिस्थिति वर्तनाहेतुत्व और रुपित्व हैं, उनके अभाव के कारण और असाधारण चैतन्य रूपता स्वभाव के सद्भाव के कारण आकाश, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल - इन पाँच द्रव्यों से भिन्न हैं"।
७. वह जीव, अनन्त अन्य द्रव्यों के साथ अत्यन्त एकक्षेत्रावगाह रूप होने पर भी अपने स्वरूप से न छूटने से टंकोत्कीर्ण चैतन्य स्वभाव रूप है।"
उक्त दोनों विशेषणों के भाव स्वयं स्पष्ट हैं, ये विशेषताऐंसमस्त अन्य द्रव्यों का जीव में अत्यन्ताभाव को सिद्ध करती हैं। ये विशेषण तो परद्रव्यों से जीव को अत्यन्त भिन्न बताकर, जीव के ऐसे वस्तुगत स्वभाव को सिद्ध करते हैं कि जीव, पर का न तो कर्ता है, न भोक्ता
और न स्वामी है, अत: उनमें एकत्व अथवा ममत्व करने का अवकाश ही नहीं रहता सहजरूप से जानते हुए परिणमन करते रहने का स्वभाव सिद्ध होता है।
इसी प्रकार प्रथम की पाँच विशेषताएँ वस्तु के अपने स्वभावगत परिणमन की अनन्त अपार गंभीरता से भरे हुए वैभव को जानते हुए परिणमते रहने के स्वभाव को प्रदर्शित करती हैं। ऐसे परिणमन करते रहने से जीव में अशुद्धता रूप परिणमन होने की संभावना का ही अवकाश नहीं रहता । उपरोक्त कथन का सार यह है कि सिद्ध भगवान की आत्मा उपरोक्त विशेषणों सहित जानते हुए परिणमते रहते हैं। फलतः वे अनन्त सुख का उपभोग करते हैं।'
उपरोक्त स्वभाव तो हर एक आत्मा के ध्रुव में निरन्तर वर्तता ही है। हमारा ध्रुव भी उपरोक्त सभी सामर्यों सहित वर्तता रहता है। तात्पर्य यह है कि मेरे भण्डार में, सिद्ध भगवान की पर्याय में प्रगट हुए सभी स्वभाव अर्थात् सिद्धत्व मेरे ध्रुव में निरन्तर विद्यमान हैं; ऐसा जानने से हमको ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होती है कि मैं तो सिद्ध हूँ। ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होते ही आत्मार्थी की अन्तरंग रुचि उछलने लगती है
और उसको अपना अस्तित्व सिद्ध भगवान की जाति का लगने लगता है। अन्तरंग में उसके दीनता-हीनता के भाव गायब हो जाते हैं अर्थात्