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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व की वास्तविक हीनता के साथ उसका प्रेम संसार बढ़ाने वाला है। ऐसा प्रवचनसार ग्रन्थ के ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार में विस्तार से बताया गया है। इस संदर्भ में उसका अध्ययन एवं मनन करने योग्य है।
यह भी ध्यान रहे कि आत्मार्थी को विकल्पात्मक ज्ञान में निर्णय करने को प्रयत्न तो सरल लगता है, अत: उसमें संलग्न होकर, रुचि एवं परिणति की महिमा गौण रह जाती है। फलत: निर्विकल्पता नहीं आती, इसलिये निर्विकल्पता प्राप्त करने के लिये अन्तर में होनेवाली रुचि की उग्रता ही आवश्यक कारण है, मात्र निर्णय नहीं। यह भी ध्यान रहे कि कृत्रिमता पूर्वकं उत्पन्न की हुई रुचि भी फलप्रद नहीं होगी। इस प्रकार उपरोक्त सावधानी सहित वस्तुस्वरूप समझना आवश्यक है। पूर्व प्रकरणों में भी वस्तु स्वरूप की चर्चा की जा चुकी है ? फिर भी संक्षेप से इसप्रकार है।
विश्व के अनन्त पदार्थों में, मैं एक जीव नाम का पदार्थ/वस्तु हूँ। वस्तु का अपना निज का स्वभाव होता है, इसलिये मेरे जीव नामक पदार्थ का भी अपने स्वभावों सहित त्रैकालिक अस्तित्व है, उसका विवेचन समयसार की गाथा २ की टीका में आचार्य श्री ने किया है। वह इसप्रकार है
आचार्य कहते है “यह जीव नामक पदार्थ एकत्वपूर्वक एक ही समय में परिणमन भी करता है और जानता भी है।" उक्त कथन से सिद्ध है कि आत्मा एक साथ हर समय जाननक्रिया सहित परिणमन करता है, ऐसा वस्तुगत स्वभाव है। यह वस्तुगत स्वभाव किसी गुण के द्वारा अथवा पर्याय द्वारा अथवा किसी अन्य कारण से नहीं है, यह तो वस्तुगत स्वभाव है। आत्मा में बसी हुई अनन्त सामर्थ्य-गुणविशेषताएँ आदि सभी वस्तुगत स्वभाव का ही अंग बनकर, उसी के परिणमन की विशेषताएँ बनती हुई परिणमती रहती है। अत: ऐसा
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व जानते हुए परिणमन करता हुआ मैं जीव नामक पदार्थ हूँ; फलत: मेरी जानन क्रिया तो अनवरत रूप से होती ही रहेगी। रुक नहीं सकती। निगोद दशा में भी विद्यमान रही थी और सिद्ध दशा में भी यह वस्तुगत स्वभाव निरंतर वर्तता रहेगा।
ऐसे जीव के उपरोक्त परिणमन में जो विशेषताएँ रहती हैं। उसकी उनमें से मुख्य-मुख्य विशेषताएँ उक्त टीका में आगे बताई हैं :
१. यह जीव उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की एकता रूप अनुभूति लक्षण युक्त सत्ता सहित है।" २. “जीव चैतन्य रूपता से नित्य उद्योतरूप निर्मल स्पष्ट दर्शन-ज्ञान ज्योति स्वरूप है।" उक्त दोनों विशेषताओं द्वारा यह बताया गया है कि वस्तुगत स्वभाव, दर्शन-ज्ञान अर्थात् सामान्य स्वभाव एवं विशेष स्वभावों रूप जाननक्रिया सहित ध्रुवरूपरहकर, निरंतर उत्पाद-व्यय अर्थात् पर्यायरूप अपना अस्तित्व बनाये रखते हुए परिणमता है।
३. “यह जीव अनस धर्मों में रहनेवाला जो एक धर्मीपना है। उसके कारण जिसे द्रव्यत्व प्रगट है ऐसा है।" इस विशेषता के द्वारा उक्त जीव पदार्थ अनन्त गुणों सहित अभेद एकरूप रहते हुए अनन्तगुणों की सामर्थ्य के साथ जानन क्रिया परिणमती रहती है।
४. “वह क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवर्तमान अनेक भाव, जिसका स्वभाव होने से जिसने गुण पर्यायों को अंगीकार किया है।" इस विशेषता द्वारा यह बताया है कि अनन्त गुण अक्रमरूप अभेद रहते हुए एक साथ परिणमन करते हैं और वह परिणमन क्रमवर्ती होता है। तात्पर्य यह है कि अक्रमरूप गुण अभेद होकर भी अपनी-अपनी योग्यतानुसार अनादि अनन्त क्रमवर्ती रूप अर्थात् क्रमबद्ध परिणमते रहते हैं उनको भी जीव जानता हुआ परिणमता है। इस विशेषता द्वारा