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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व मानकर सन्तोष कर लेता है। फलस्वरूप वास्तविक मार्ग से और भी दूर हो जाता है। ज्ञानी को भी यश का लोभ आ जाने पर उसको भी मार्ग भ्रष्ट कर देता है। इसप्रकार स्व-पर की हानि करता है।
उपरोक्त सभी कथनों को समझकर आत्मार्थी को बहुत सावधान रहते हुये, उपरोक्त सभी खतरों से बचते हुए अपनी रुचि के वेग को एकमात्र पूर्णता प्राप्त करने अर्थात् सिद्ध भगवान बनने की ओर केन्द्रित रखते हुए अन्य आकर्षणों से बचाये रखना चाहिये। निरंतर सावधानी रखनी चाहिये। और स्वयं का आत्मा ज्ञायक है, उस ही को शरणभूत मानते हुए रुचि का केन्द्र बिन्दु एकमात्र वही रहना चाहिये। यह समस्त कथन का सार है।
ज्ञानी को उपरोक्त निधि पाकर, अन्यजनों को समझाने अथवा अज्ञानी जनों को सन्मार्ग पर लगाने के बहाने, वचनों द्वारा प्रदर्शन करने के खतरे से भी बचना चाहिये। कारण अज्ञानीजनों की संख्या हमेशा अधिक रहती है, वे थोड़ी आत्मा की बात सुनकर प्रभावित हो जाते हैं और अपने पुरुषार्थको आत्मलक्ष्यी करने के विपरीत, उपदेशक के प्रति उनकी भक्ति उमड़ती है। ऐसी स्थिति में ज्ञानी यश के लोभ में फंसकर मार्गभ्रष्ट हो जाता है। नियमसार की गाथा १५६ तथा श्लोक २६७ में भी कहा है। भावार्थ एवं श्लोकार्थ निम्न प्रकार है
"जगत में जीव, उनके कर्म, उनकी लब्धियाँ आदि अनेक प्रकार के हैं, इसलिये सर्व जीव समान विचार के हों - ऐसा होना असम्भव है। इसलिये परजीवों को समझा देने की आकुलता करने योग्य नहीं है। स्वात्मावलंबन रूप निजहित में प्रमाद न हो- इसप्रकार रहना ही कर्तव्य है।।२६७॥"
इसप्रकार उपरोक्त खतरे से भी सावधान रहते हुए, अपनी रुचि
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व को मार्ग से किञ्चित् भी चलित नहीं होने देना चाहिये, आत्मार्थी का यही कर्तव्य है।
त्रिकालीज्ञायक ध्रुवभाव की
महिमा कैसे आवे? प्रश्न -मैं त्रिकाली ज्ञायक सिद्ध स्वभावी ध्रुव पदार्थ हूँ। ऐसा निर्णय करके मान लेने पर भी, उसमें आकर्षण तो उत्पन्न नहीं होता,
और उसमें आकर्षण हुए बिना, परपदार्थों का आकर्षण छूटता नहीं। अत: इसका उपाय क्या हो ?
उत्तर -विकल्पात्मक ज्ञान में निर्णय कर लेने मात्र से ज्ञायक में वास्तविक आकर्षण उत्पन्न नहीं हो सकता। वास्तविक आकर्षण तो, अपने ध्रुव के वास्तविक स्वरूप को समझकर एवं उसकी प्राप्ति से होनेवाली उपलब्धियों के स्वरूप को समझकर, श्रद्धा में बैठाकर तथा “परज्ञेयों को जानना अथवा प्राप्त करना” असंभव है- ऐसी श्रद्धा होकर, जब अपनी परिणति सब ओर से सिमटकर उपयोग को अपने ध्रुवभाव में एकाग्र होकर, निर्विकल्प अनुभव करे, तब ही वास्तविक आकर्षण उत्पन्न होगा। ऐसा आकर्षण सहज होता है, उसके लिये विकल्प करने का पुरुषार्थ कार्यकारी तो नहीं वरन् बाधक होता है। लेकिन इतना अवश्य है कि वस्तुस्वरूप समझकर, रुचि की उग्रतापूर्वक विकल्पात्मक ज्ञान में दृढ़तम निर्णय सहित, ध्रुव स्वभाव में अपनेपन का तीव्र आकर्षण उत्पन्न कर ज्ञेय मात्र के प्रति आकर्षण का आत्यन्तिक अभाव जाग्रत हुए बिना भी निर्विकल्प अनुभव नहीं
होगा।
ध्रुवभाव की महिमा बढ़ाने वाले ऐसे अतीन्द्रिय ज्ञान एवं अतीन्द्रिय सुख प्राप्त करने के लाभ एवं इन्द्रिय ज्ञान एवं इन्द्रिय सुख