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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व रहना चाहिये। निष्कर्ष यह है कि त्रिकालीसिद्धसदृशज्ञायकध्रुव भाव रूप ही अपना अस्तित्व मानकर उसमें अपनेपन के भाव में दृढ़ता रखते हुए, ज्ञेय मात्र के स्वतंत्र परिणमन की श्रद्धापूर्वक, अपनी परिणति को सब ओर से समेटकर तीव्र रुचि की उग्रतापूर्वक उपयोग को स्व में एकाग्र करने के पुरुषार्थ में ऐसा संलग्न हो जाना चाहिये, जिससे अन्य कोई आकर्षण उसके उपयोग को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सके और अंतत: द्वैत का अभाव होकर निर्विकल्प आनंद का अनुभव प्राप्त करके ही परिणति विराम पावे; यही मनुष्य जीवन सफल करने का उपाय है।
वास्तव में तो सम्यग्दृष्टि को अन्य जीवों में प्रदर्शन का भाव ही नहीं होता। अपने को श्रद्धा में सिद्ध मानने वाला पूर्णदशा प्राप्त होने तक तो अपने को तुच्छ और पामर मानता है। अत: वह तो एकान्त प्राप्त कर, लौकिकजनों से दूर रहकर, स्व में स्थिरता बढ़ाने का अभ्यास करने की चेष्टा करता है। नियमसार परमागम की गाथा १५७ में तथा श्लोक २६८ में भी कहा है, श्लोकार्थ इसप्रकार है -
"इस लोक में कोई एक लौकिक जन पुण्य के कारण धन के समूह को पाकर, संग को छोड़कर गुप्त होकर रहता है। उसी की भांति ज्ञानी (पर के संग को छोड़कर गुप्तरूप से रहकर) ज्ञान की रक्षा करता है॥२६८॥"
यही भाव गाथा के अर्थ में प्रगट किया है -
"जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य) निधि को पाकर अपने वतन में (गुप्तरूप से) रहकर उसके फल को भोगता है, उसी प्रकार ज्ञानी परिजनों के समूह को छोड़कर ज्ञान निधि को भोगता है।।१५७||
उपरोक्त सभी कथनों का तात्पर्य यह है कि जो ज्ञानी होने का
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व प्रदर्शन करता है। यह समझ लेना चाहिये कि वास्तव में उसे ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है। ज्ञानी तो इसके विपरीत गुप्त रहकर साधनारत रहता है। प्रदर्शन के कार्यों से अपने आपको बचाता रहता है।
दूसरी अपेक्षा से भी विचार करें तो जिनधर्म में पूज्यपना महंतपना तो मात्र पंच परमेष्टियों को है। ज्ञानी श्रावक तो उनका आराधक होता है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती का तो मोक्षमार्ग में निम्न से निम्न दर्जा है। चतुर्थकाल में तो बहुभाग' श्रावक ऐसे ही होते थे, उनमें कोई प्रकार की महानता न तो ज्ञानी अपने आप में मानता था और न अन्य मानते थे। पंचम गुणस्थानवर्ती किसी भी प्रतिमा का धारी हो, उसको भी ज्ञानी 'नमोऽस्तु' शब्दपूर्वक नमस्कार नहीं करके मात्र 'इच्छाकार' बोलकर सन्मान करता है; इसका अर्थ होता है, “मैं भी आपके समान होने की इच्छा करता हूँ।"
लेकिन वर्तमान पंचमकाल में तो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती ज्ञानी श्रावकों के समागम की अत्यन्त दुर्लभता हो जाने से, सच्चे ज्ञानी के मिलने पर भक्ति जाग्रत होना तो स्वाभाविक है, लेकिन वह भक्ति अपने में भी सम्यक् श्रद्धा प्रगट करने के लिये होती है। मोक्षमार्ग में तो गुणों की महिमा होती है, व्यक्ति की नहीं। ऐसी भक्ति अन्तरंग में होती है और आत्मार्थी उचित सम्मान के साथ उनका समागम करके सम्यक् प्राप्त करने का वास्तविक मार्ग समझने की चेष्टा करता है। ज्ञानी ने वीतरागता का मार्ग अपनाया है और ऐसी वीतरागता अतलक्ष्यी पुरुषार्थ से होती है। अत: ज्ञानी के समागम द्वारा ऐसी ही भावना जाग्रत होना यही ज्ञानी की वास्तविक भक्ति है। भक्ति का बाह्य प्रदर्शन तो राग का पोषक होता है। अज्ञानी तो पहले ही राग में रचा-पचा रहता है, उसको ज्ञानी की भक्ति के प्रदर्शन को धर्म का अंग मानने का एक नया बहाना मिल जाता है तो वह तो उस राग में ही धर्म