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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व असद्भूत-सद्भूत-उपचरित-अनुपचरित आदि अनेक भेद करके समझाया जाता है।
समझाने के क्रम में स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाने की सामान्य पद्धति है तथा जीवों के क्षयोपशम ज्ञान की प्रगटता की मुख्यता से भी क्रम पड़ता है। जैसे स्त्री-पुत्रादि एवं मकान धनादि, इस शरीर से भी भिन्न होते हुए आत्मा के बताना, बहुत स्थूल है व मात्र मनुष्यों में वर्तमान जीवन तक भी नहीं रहने वाला संबंध है। इसको असद्भूत उपचार कथन बताकर इनसे एकत्व छुड़ाया है।
इसीप्रकार शरीर से आत्मा का वर्तमान जीवन तक एक क्षेत्रावगाह रूप में रहने वाला सम्बन्ध है। ऐसा सम्बन्ध एकेन्द्रिय से मनुष्य तक के सब जीवों में है। अत: यह पूर्व की अपेक्षा कम स्थूल है। इसमें एकत्वबुद्धि को छुड़ाने के लिये ऐसे सम्बन्ध को असद्भूत उपचरित अथवा अनुपचारित सम्बन्ध कहकर छुड़ाया गया है। ऐसे सम्बन्ध को प्रवचनसार ग्रंथ में असमानजातीय द्रव्यपर्याय के नाम से सम्बोधित किया है। सैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक में ऐसी एकत्वबुद्धि ही मुख्यता से पाई जाती है, उनको तो मोह-रागादि भावों का ज्ञान ही प्राय: नहीं होता। फिर भी ऐसा जीव असमानजातीय द्रव्यपर्याय से एकत्वबुद्धि तोड़कर, सीधा ध्रुव भाव में एकत्व कर ज्ञान को पर की
ओर से समेटकर आत्मलक्ष्यी कर ध्रुव में एकाग्र कर, निर्विकल्पता प्राप्त कर लेता है। उसे बीच में पड़ने वाले मोह-रागादि भावों का एकत्व तोड़ना आवश्यक नहीं रहा। क्योंकि ज्ञान को परलक्ष्यीपने का अभाव होकर, स्वलक्ष्यी होना ही पर्याप्त है। परलक्ष्यी ज्ञान का विषय क्या था इसकी मुख्यता नहीं होती।
प्रवचनसार में भेदज्ञान कराने का आधार ही असमानजातीय द्रव्यपर्याय मुख्य है। ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार में ज्ञायक का स्वरूप
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
107 समझाकर, ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन के द्वारा, ज्ञेय का यथार्थ स्वरूप समझाने के अंतर्गत, अज्ञानी जिस असमानजातीय पर्याय को अपना मानकर उसमें एकत्व करता है, उसका विवेक कराया है। ज्ञानतत्त्व के ज्ञान में ज्ञेय तो पूरा द्रव्य होता है, अकेली पर्याय तो होती नहीं। अत: वास्तव में द्रव्य की दृष्टि से देखने पर, इस असमानजातीय पर्याय का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। शरीर तो पुद्गल की पर्याय है और आत्मा की व्यंजन पर्याय का स्वामी आत्मा है। अतः दोनों का यथार्थ स्वरूप बताकर, पराश्रय बुद्धि छुड़ाकर द्रव्यदृष्टि के द्वारा भेदज्ञान उत्पन्नकर, सीधा स्वरूप में एकाग्र होकर निर्विकल्प आत्मानुभव कराने का उपाय बताया है।
महावीर स्वामी की आत्मा ने सिंह की पर्याय में ऐसे ही भेदज्ञान पूर्वक आत्मानुभव कर, ज्ञानीपना प्राप्त किया था।
मनुष्य जाति में उत्पन्न हुए जीव को ज्ञान का क्षयोपशम अन्य जीवों से अधिक होता है। अत: वह अपने क्षयोपशम की प्रगटता का उपयोग आत्मलाभ करने के लिये अन्य जीवों की अपेक्षा विशेष कर सकता है। और मिथ्यात्व का जोर होने पर उसी ज्ञान का दुरुपयोग भी अनेक विपरीत युक्तियों एवं तर्कों द्वारा और भी दृढ़ता से पुष्ट कर सकता है। अत: उसके द्वारा गढे गये अनेक कुतर्कों का खण्डन करके ऐसे जीवों को सन्मार्ग पर लगाने के लिये विस्तार से कथन किया गया है। ऐसी मिथ्या मान्यताओं का विस्तारपूर्वक वर्णन मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ में किया गया है।
इसप्रकार के विशेष क्षयोपशम वाले आत्मार्थी को पर्यायों में उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के शुभाशुभ भाव जो वास्तव में आत्मा का अहित करने वाले हैं। वे अपने आत्मा की ही पर्यायें हैं। ऐसे भाव तथा उनके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध से रहने वाले द्रव्यकर्म, ये दोनों