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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व तदुपरान्त विचारता है कि अनन्त गुण जो अभेद रूप से आत्मा में बसे हुए हैं, उनको समझने में एवं प्रत्येक गुण के कार्यों (पर्यायों) को समझने में मेरा ज्ञान उलझकर, ज्ञायक की ओर एकाग्र होने में बाधा करता है। अत: उनके भी परिमणनों के स्वामी उन्हीं को स्वीकार करते हुए, उनमें भी अपनी परिणति को नहीं अटकने देने का निर्णय करता है। गुण तो द्रव्य में अभेद ही बसे हुए हैं, उनके भेदों में उलझने से मेरी परिणति बर्हिलक्ष्यी बनी रहती हुई अपने ज्ञायक से विमुख रहती है। अत: इनमें नहीं अटकने के लिये इनको समझने आदि का मोह (प्रेम) छोड़कर परिणति को अशरण कर देना चाहिये। अंतत: जहाज पर बैठे पक्षी की भाँति, कोई शरणभूत नहीं रहने से, परिणति को अपना ज्ञायकभाव ही एकमात्र शरणभूत रह जावेगा तब अन्य द्वैत का अभाव रहने से उपयोग अपने ज्ञायक में ही एकाग्र हो सकेगा और निर्विकल्प होकर ज्ञायक की शरण प्राप्तकर, अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव आस्वादन कर तृप्त हो जावेगा। ऐसी दशा प्राप्त होते ही, श्रद्धा भी सम्यक् होकर निःशंकतापूर्वक ध्रुवरूप ही अपना अस्तित्व मानने लगेगी, ज्ञान भी सम्यक् होकर ज्ञान की भी स्व-पर प्रकाशकता प्रगट होकर परिणमने लग जावेगा एवं चारित्रभी सम्यक् होकर अनन्तानुबंधी के अभावात्मक स्थिरता प्राप्त कर स्वरूप में आचरण करने लगजावेगा। इसप्रकार अनन्त गुणों का स्वरूप में आचरण हो जाने से, पर्याय में भी आंशिक सिद्धत्व प्रगट हो जावेगा। मोक्षमार्ग का प्रारम्भ हो जावेगा।
उपरोक्त स्थिति प्राप्त कराने का श्रेय अकेले क्षयोपशम ज्ञान के निःशंक निर्णय को नहीं है, अपितु आत्मार्थी की उत्तरोतर बढ़ती हुई रुचि की उग्रता को है। रुचिरहित उपरोक्त प्रकार का निर्णय कभी भी उपरोक्त दशा उत्पन्न नहीं करा सकता। उसका महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि रुचि जैसे बढ़ती जाती है उसके साथ उतने ही अंश में मिथ्यात्व
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व एवं अनंतानुबंधी के निषेक भी क्षीण होते जाते हैं; क्षयोपशम ज्ञान के निर्णय में इस सामर्थ्य का अभाव है। आगम में कहा भी है “रुचिमेव सम्यक्तं" एवं “रुचिअनुयायी वीर्य' तथा वीर्य गुण का कार्य है "स्वरूप की रचना करे सो वीर्य'। अतः सम्यक् स्वरूप की रचना करने में जो रुचि लगी रहती है उससे सम्यक्त्व प्राप्त होने योग्य पात्रता उग्रता के अनुसार क्रमश: बढ़ती रहती है। और अन्त में मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी के निषेक जो क्षीण हो चुकने के कारण निर्बलता को प्राप्त हो चुके थे, वे निर्विकल्प आत्मानुभव होते ही समूल नष्ट हो जाते हैं। यह योग्यता रुचिविहीन ज्ञान के निर्णय में नहीं है, उसका प्रमाण है ग्यारह अंग नौ पूर्व के पाठी द्रव्यलिंगी साधु । स्पष्ट है कि सम्यक्त्व प्राप्त करने का श्रेय एकमात्र रुचिसहित विकल्पात्मक भूमिका में किये गये निर्णय को है। न ज्ञान को है और न सम्यक् विहीन व्यवहारचारित्र के साधन को। ऐसा समझकर आत्मार्थी को मार्ग से च्युत नहीं हो जाने से सावधान रहना चाहिये।
उपरोक्त पद्धति अपनाने से सम्यग्दर्शन प्राप्त किया जा सकता है। यह कथन तो मात्र मार्ग समझने के लिये किया गया है। इस पद्धति के समझ लेने मात्र से सम्यक्त प्राप्त नहीं हो सकता। प्राप्ति तो रुचि की उग्रता के साथ उपरोक्त मार्ग अपनाकर अपनी रुचि एवं परिणति को बाहर से समेट कर सभी आकर्षणों से विमुख करने से होगी। तथा जब रुचि एवं परिणति का, अकेले ज्ञायक में आकर्षण रह जावेगा तब ज्ञान आत्मलक्षी होकर ज्ञायक में एकाग्र होने पर ही सम्यग्दर्शन प्रगट हो सकेगा। मात्र सुन-समझकर एकान्त में बैठकर ध्यान मुद्रा धारणकर, उपरोक्त प्रकार के विकल्प करने से, उक्त मार्ग का अंश भी प्रगट नहीं हो सकेगा। अपितु वह सत्यार्थ मार्गसे और भी दूर हो जावेगा, क्योंकि वीतरागी दशा प्रगट करने का उपाय, रागादि सहित के विकल्प नहीं हो सकते।