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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व दोनों प्रकार की इच्छाओं के अभाव का उपाय
प्रश्न-शिष्य जिज्ञासापूर्वक प्रश्न करता है कि हे प्रभो ! इन दोनों प्रकार की इच्छाओं के अभाव करने का मार्ग बताईये ?
उत्तर - उपरोक्त कथन तो मात्र ध्रुव में सिद्धत्व स्थापन करने की अर्थात् श्रद्धा में अपने को सिद्ध समान मानने की महिमा बताने के संदर्भ में किया था। उपरोक्त कथन ज्ञान द्वारा स्वीकार कर लेना मात्र ही सम्यक् श्रद्धा के जन्म हो जाने का प्रमाण नहीं है। ऐसी समझन तो ११ अंग नौ पूर्व के पाठी द्रव्यलिंगी साधु को भी हो जाती है, लेकिन फिर भी वह संसारमार्गी ही रहता है। हे भव्य ! तेरे प्रश्न से ऐसा लगता है कि तू भी उपरोक्त प्रकार की भूल से ग्रसित हो गया है। उक्त कथन सुनकर तुझे श्रद्धा उत्पन्न करने की प्राथमिकता छूटकर, रागादिक अभाव करने की उतावली जाग्रत होकर तू छलांग मारकर श्रद्धा के सम्यक् होने के पहले ही रागादि के अभाव करने को उत्साहित हुआ है। लेकिन अब सावधान होकर यथार्थ मार्ग से च्युत नहीं होना, यही सारभूत है।
सम्यक् श्रद्धा प्रगट करने का वास्तविक उपाय तो यह है कि सर्व प्रथम रुचि की उग्रतापूर्वक उपरोक्त कथन सुनकर, अपने चिंतनमनन द्वारा, अनेक प्रकार की युक्तियों द्वारा परखकर, अपने क्षयोपशम में निःशंकता के साथ पक्का निर्णय करे कि उपरोक्त कथन शत-प्रतिशत सत्य है, मुझे भी ऐसा ही भासता है। फलत: विकल्पात्मक ज्ञान में निःशंक रूप से निर्णय करता है अर्थात् स्वीकारता है कि ध्रुव रूप ही मैं हूँ और ध्रुव सिद्ध स्वभावी होने से मेरे निर्णय में तो मैं सिद्ध ही हूँ।
अब तो मुझे मेरा सिद्धत्व पर्याय में प्रकट करना है और एक मेरे ध्रुवको ही शरणभूत मानता हुआ, पर की ओर से अपनापन समेटकर अपने ज्ञान-श्रद्धान में मात्र एक ध्रुव में ही अपनापन स्थापन कर लेना
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
77 है। यह भी निर्णय करता है कि अब तक तो मैं ध्रुव को भूलकर अन्य सबको-स्त्री पुत्रादि धन पैसा मकानादि तथा शरीरादि को मेरा मानता चला आ रहा हूँ, तथा उनको मेरा मानकर उन्हीं में एकत्व-ममत्वकरकर्तृत्व भोर्तृत्व करता हुआ उन्हीं में रचा-पचा रहता आया हूँ; अब उनसे मेरापने का अभिप्राय छोड़कर अपने ज्ञायक ध्रुव को ही अपना मानने का निर्णय करता हूँ। साथ ही विचारता है कि मेरे आत्मा में रागादि भावकर्म उत्पन्न होते हैं, उन पर भी स्वामित्व मानकर अभाव करने में लगे रहने पर भी उन पर किञ्चित् मात्र भी अधिकार चलता नहीं, वे तो अपने जन्मक्षण में अपनी योग्यतानुसार उत्पन्न होते और विनष्ट होते रहते हैं, अत: उनके अभाव का प्रयास अपने पुरुषार्थ का दुरुपयोग करना है। और यह भी अनुभव करता है कि उनके परिणमन का ज्ञान तो होता है, उसके समय, उनको मेरे में हुए मानता हूँ तो मेरे ज्ञायक स्वभावी ध्रुव को मेरा मानना छूट जाता है और उनका संयोग मेरे में होकर उनको रक्षण-पोषण मिलने से वे बढ़ते ही रहते हैं।
अगर मैं उनसे मेरा स्वामित्व छोड़कर, अपने ध्रुव ज्ञायक की ओर, अपने ज्ञान श्रद्धान को मोड़ दूं तो इनका संयोग भी नहीं होगा
और इनका उत्पन्न होना भी रुक जावेगा। इसलिये इनका स्वामी उन पर्यायों को अथवा जिनके निमित्त-नैमित्तिक संबंध से उनकी उत्पत्ति होती है, उनको ही मानकर उनकी ओर से विमुख रहने का आत्मार्थी निर्णय करता है एवं उनके साथ स्वामित्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्व एकत्वममत्व आदि सभी सम्बन्ध विसर्जन करने का निर्णय कर लेता है।
इसप्रकार आत्मार्थी अपने विकल्पात्मक ज्ञान के निर्णय द्वारा श्रद्धा को परिवर्तित कर, उन सबकी ओर से अपने पुरुषार्थ को समेटकर एक अपने ज्ञायक स्वभाव की ओर मोड़ लेने का निर्णय और प्रयत्न करता है।