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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व उक्त प्रकार से आचार्यश्री ने तेरे आत्मा में सिद्धत्व की स्थापना का फल भी बता दिया है। तात्पर्य यह है कि आचार्य बताना चाहते हैं कि तेरे आत्मा में सिद्धत्व की स्थापना मात्र शब्दों में नहीं की है वरन् सिद्ध भगवान की प्रगट हुई अवस्था अर्थात् सिद्धत्व की स्थापना तेरे ध्रुव में की है; क्योंकि प्रतिध्वनि में बोलने वाला जो शब्द बोलता है, वे ही शब्द प्रतिध्वनि में सुनाई पड़ते हैं। इसी प्रकार आचार्यश्री ने सिद्धत्व की स्थापना ध्वनि द्वारा की है, तो प्रतिध्वनि मिलती है कि तू सिद्ध है अर्थात् आचार्यश्री कहना चाहते हैं कि हमारे सिद्धत्व की स्थापना द्वारा तू स्वयं सिद्ध है, ऐसी श्रद्धा करने का संकेत देते हैं। अब तुझे उनके समान ही अपने सिद्ध स्वभावी ध्रुव को श्रद्धा में लेकर, उनके समान अपने आत्मा को मानकर, अर्थात् श्रद्धाकर और परिणति को सब ओर से समेटकर, एकमात्र सिद्धस्वभावी तेरे ध्रुव में एकाग्र करने से ही तू स्वयं सिद्ध भगवान बन जावेगा। ऐसा महान फल तुझे तेरे आत्मा में सिद्धत्व स्थापना का प्राप्त होगा। अर्थात् मेरा अस्तित्व ही सिद्ध स्वभावी आत्मा के रूप ही है। अभी तक जैसा मानता चला आ रहा था ऐसा पर्यायस्वभावी नहीं है; क्योंकि मैं तो ध्रुव रहने वाला हूँ और ये पर्यायें अनित्य स्वभावी हैं। अतः मैं तो ध्रुव स्वभावी हूँ। ऐसी निःशंक श्रद्धा उत्पन्न होकर, पर्याय जैसा मानने की श्रद्धा का अभाव होने से ही सम्यक् श्रद्धा का जन्म होगा। ऐसा सुनकर आत्मार्थी की रुचि और भी ज्यादा उग्र हो जाती है और सम्यक् श्रद्धा उत्पन्न करने के लिये कटिबद्ध हो जाता है।
सिद्ध भगवान की पर्याय का स्वरूप
प्रश्न – सिद्ध भगवान की आत्मा का सिद्धत्व उनकी पर्याय प्रकाशित हो गया, अत: उनको तो उसका लाभ (अनुभव) हो रहा
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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
है; लेकिन वह हमको तो है नहीं, फलतः उसको प्रगट करने का उत्साह जाग्रत नहीं होता; तब फिर श्रद्धा उत्पन्न कैसे होगी ? अतः कृपाकर उनकी प्रगट पर्याय की विशेषताएँ बताइये ?
उत्तर - हे भव्य ! सिद्ध भगवान की प्रगट पर्याय की विशेषताएँ तो अनन्त हैं, लेकिन उनमें वीतरागता एवं सर्वज्ञता की प्रगटता ही हमको मोक्षमार्ग प्रारम्भ करने में सर्वोत्कृष्ट विशेषता है । संसारी प्राणियों को इनसे विपरीत दो प्रकार के अवगुण उत्पन्न होते रहते हैं, जिनका अनुभव भी होता हैं। वे दोनों अवगुण है - एक तो सुख प्राप्ति के लिये माने हुए सुख के साधनों को प्राप्त करने की इच्छा, और दूसरा, नहीं
हुए पदार्थों को जानने की इच्छा - ये दोनों प्रकार की इच्छाएँ ही आत्मा की सबसे बड़े शत्रु रागद्वेषादि भावों को उत्पन्न करने वाली जननी है। इन्हीं दोनों प्रकार की इच्छाओं का सिद्ध भगवान में अभाव हो गया है। अनन्तसुख तो पूर्ण वीतरागी होने पर प्रगट हो गया। अतः सुख प्राप्त करना शेष रह नहीं गया और रागादिक के अभाव से अज्ञात को जानने की इच्छा ही नहीं रही अतः सर्वज्ञता प्रगट हो गई। तात्पर्य यह है कि इच्छाओं अर्थात् रागादि का अभाव होते ही उपरोक्त दोनों गुणों के साथ अनन्तगुण प्रगट ( प्रकाशित) अनुभव में आ जाते हैं। इसी का नाम सिद्धत्व है।
उपरोक्त कथन पर चिंतन-मनन करने से आत्मार्थी को ऐसा विश्वास तो जाग्रत होता है कि वास्तव में मुझे इच्छाएँ तो उपरोक्त दोनों प्रकार की ही होती हैं और इन इच्छाओं की पूर्ति हेतु ही रागादिभाव उत्पन्न होते हैं और रागादि का उत्पन्न होना ही आकुलता अर्थात् दुःख है। अतः इन इच्छाओं का अभाव हुए बिना मैं कभी सुखी नहीं हो सकूँगा । ऐसा विचारकर शिष्य पुनः प्रश्न करता है।