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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व ज्ञानी की सविकल्प दशा में वर्तनेवाली दशा
प्रश्न- हे प्रभो! सम्यक्त्व प्राप्त होकर ज्ञानी जीव के निर्विकल्प दशा में रहने का काल तो अति अल्प होता है। तत्पश्चात् विकल्पदशा हो जाने पर क्या स्थिति रहती है। ज्ञानी को भी अपनी दशा मापते रहने के लिये, इसका ज्ञान आवश्यक है। अत: कृपाकर समझाइये?
उत्तर - यह सत्य है कि ज्ञानी को भी अपनी भूमिका को सुरक्षित रखने के लिये उपरोक्त जानकारी उपकारी होने से जानना आवश्यक है।
निर्विकल्पदशा में आत्मा के अनंत गुणों का अभेद स्वाद आता है, इस दशा के अनुभव को स्वसंवेदन कहा गया है। स्वसंवेदन का अर्थ अपने आपको भली प्रकार जानना अर्थात् स्वाद लेना है। इस दशा में श्रद्धा ने तो अपना अस्तित्व ध्रुवरूप मानकर श्रद्धा कर ली। श्रद्धा जबतक जीवित रहेगी वह ध्रुव के अतिरिक्त अन्य रूप अर्थात् क्षणिक पर्याय रूप अथवा शरीर रूप अथवा बाहर के स्त्री-पुत्रादि रूप अपने को नहीं मान सकती और न उनको अपना मान सकती है। विकल्पात्मक दशा की पर्याय में भी ऐसा परिणमन अनवरतरूप से चलता रहता है। इसके साथ ही ज्ञान ने अपने स्वरूप को अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान द्वारा अपना जान लिया और अतीन्द्रिय अनाकुल सुख जो प्रगट हुआ, उसका संवेदन प्रत्यक्ष हुआ, उसका भी ज्ञान आत्मा को हुआ, ज्ञान का उपयोग विकल्पात्मक होकर बाहर निकल कर पर की
ओर आकृष्ट हो भी जावे तो भी इन सब का ज्ञान तो निरंतर वर्तता ही रहता है। साथ ही अनंतानुबंधी के अभावात्मक आत्मा के सुखगुण सहित सर्वगुणों का आंशिक आचरण अर्थात् स्थिरता-लीनतातन्मयता हो जाने से, अतीन्द्रिय आनंद का स्वाद-अनुभव-वेदन भी प्रत्येक पर्याय में आंशिक प्रगट होकर स्वाद में आता रहता है।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
81 तात्पर्य यह है कि निर्विकल्प उपयोगात्मक ज्ञान उत्पन्न होते ही सिद्ध भगवान की पर्याय में प्रगट अतीन्द्रिय आनंद का नमूना (बानगी) तो आत्मा को प्रत्यक्ष वेदन में आ जाता है। तदुपरान्त ज्ञान के विकल्पात्मक होते ही ज्ञान उपयोगात्मक पर की ओर आकृष्ट हो जाता है, फलतः उक्त आनन्द के वेदन का स्वाद तो नहीं रहता लेकिन चारित्रमोह की आंशिक अभावात्मक स्थिरता तो सदैव बनी रहती है। अत: ज्ञान के विकल्पात्मक होकर परलक्ष्यी हो जाने पर भी उसका ज्ञान अज्ञानी के समान विपरीत नहीं हो जाता वरन् चारित्रात्मक स्वरूपाचरण हो जाने से सर्व गुणों का अंश तो अभेद होकर, आत्मा के ज्ञान-श्रद्धान में, आंशिक आनंद के वेदन सहितवाला निरन्तर वर्तता ही रहता है। ध्रुव अभेद आत्मा स्व के रूप में अर्थात् ऐसा आत्मा मैं हूँ, ऐसी श्रद्धा सहित का ज्ञान निरंतर वर्तता ही रहता है। फलस्वरूप परलक्ष्यी ज्ञान वर्तने की दशा में भी सहजरूप से बिना प्रयास या विकल्प करे, ज्ञानी का ज्ञेयों के साथ भेदज्ञान वर्तता रहता है, यह ही है वास्तविक भेदज्ञान । जो कि ज्ञानी को संवरपूर्वक निर्जरा का कारण बनता है और परज्ञेयों में ज्ञान के उलझने पर भी उनसे एकत्व नहीं होने देकर परत्वभिन्नत्व बनाये रखता है। अपने सिद्ध स्वभावी ध्रुव में अपनत्व की ही ऐसी अपार महिमा है।
उपरोक्त दशा प्राप्त ज्ञानी, चारित्र की निर्बलता के कारण (कर्मादिक के कारण नहीं) अपने ध्रुवभाव की इतनी महिमा जाग्रत नहीं कर पाता कि ज्ञान का उपयोग पर की ओर आकृष्ट ही नहीं होवे अर्थात् झुके ही नहीं। ऐसी निर्बलता ज्ञानी के ज्ञान में निरंतर खटकती रहती है; और निर्बलता के अभाव करने का उपाय भी अपने ध्रुव में आकर्षण बढ़ाना ही मानता है। इसके लिये भेदज्ञान के निरंतर अभ्यास द्वारा जाग्रत रहकर अपने पुरुषार्थ को मात्र इस ही की पूर्ति में लगा देता
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