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________________ 64 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व के समाचार सुनाई पड़ते होंगे, उनकी रुचि अंदर में कितनी उग्रता के साथ अपनी मुक्ति के समीप आने से छटपटाने लगी होगी। इस द्रष्टान्त द्वारा सिद्धान्त समझने का प्रयास करेंगे। सर्वप्रथम अनादि अज्ञानी प्राणी किसी भी कारण को पाकर चतुर्गति के भ्रमण के दुःखों से दुखी होकर, शांति अर्थात् सुखी होने के मार्ग खोजने की रुचि प्रगट होकर वास्तविक रुचि का बीजारोपण होता है। फलस्वरूप वह प्राप्त क्षयोपशम ज्ञान को सांसारिक प्रपंचों से बचाकर, सुख प्राप्त करने की ओर लगाता है। ऐसी रुचि प्राप्त जीव को सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि जीव कहकर, क्षयोपशमलब्धि प्राप्त जीव कहा जाता है। इस जीव की इसप्रकार के प्रयास के पुरुषार्थ में पूर्वदशा की अपेक्षा सहजरूप से बिना प्रयास के कषायों में मंदता आ जाती है, वही विशुद्धिलब्धि है। इसकाल में उसकी रुचि का बीज परिपक्वता को प्राप्त करता रहता है। अगर उस बीज को पोषण नहीं मिला तो वह बीज समाप्त भी हो जाता है। लेकिन इस प्रकरण में मात्र ऐसे जीव की रुचि की ही चर्चा करेंगे; जिस जीव ने रुचि का बीजारोपण होने के पश्चात् उसके निरंतर रक्षण-पोषण करते-करते विशाल वृक्ष का रूप धारण करके फल प्रदान करने योग्य बना लिया हो । उपरोक्त दशा प्राप्त जीव को, सत्समागम अथवा गुरु उपदेश द्वारा, जब यह समझ में आता है कि चतुर्गति में प्राप्त संयोगं जनित दुःखों को ही अभी तक मैंने दुःख माना था, अर्थात् नरक में प्राप्त दुख, तिर्यंचगति में प्राप्त दुख, मनुष्यों में भी दरिद्रताजन्य अथवा रोगादि से प्राप्त दुःखों को ही दुःख मानकर, देवगति में प्राप्त अनुकूल संयोग एवं पुण्य के उदय से प्राप्त मनुष्यादि के सुखों को सुख मानकर, ऐसी दशा प्राप्त करने के लिये निरंतर रत रहता था। लेकिन अब तो इन सबकों भी, तृष्णा के द्वारा तथा प्राप्त भोगों को भोगने की लालसा द्वारा, तथा निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व प्राप्त संयोगों को बनाये रखने आदि अनेक प्रकार की तीव्र आकुलता के कारण समझने लगा हूँ। 65 इसलिये अब गुरु प्रताप से मुझे यह सद्बुद्धि जाग्रत हुई है और समझ में आया है कि दुःख तो वास्तव में आकुलता है, प्रतिकूल संयोग मात्र नहीं। अतः मुझे तो इस आकुलता के अभावात्मक सुख को प्राप्त करना है, संयोग जनित सुख नहीं चाहिये । इतना अवश्य है कि विपरीत संयोगों में आकुलता अधिक रहती है; इसलिये अनुकूल संयोग प्राप्त होने का सदुपयोग अनाकुल सुख प्राप्त करने में करना है। अनुकूल दशा को अगर मैंने ऐसे सुख प्राप्त करने के मार्ग में नहीं लगाया तो, मैं भी संयोगों को भोगने आदि की गृद्धता और तृष्णा में फंसकर चिंतामणि समान प्राप्त अवसर को खो दूँगा। ऐसे विचार जिसके हृदय में जागृत हुए हों ऐसे जीव की रुचि का अंकुरा पल्लवित होकर प्रगट हो गया। अब उसका रक्षण - पोषण होता रहा तो पूरा फल प्रदान करने वाले वृक्ष का रूप धारण कर लेगा। ऐसी रुचिधारक जीव देशनालब्धि प्राप्त करने की योग्यता को पहुँच जाता है। उपरोक्त जीव अपनी रुचि के पोषण के लिये अनाकुलता लक्षण सुख प्राप्त करने का मार्ग खोजने के लिये कटिबद्ध हो जाता है और उसकी पूर्ति के लिये गुरु उपदेश एवं सत्समगम आदि के द्वारा मार्ग खोजने का पुरुषार्थ करता है। ऐसे जीव को श्रीगुरु समझाते हैं। हे भव्य ! तेरा सुख किसी अन्य के पास नहीं है, जहाँ से तुझे प्राप्त करना पड़े। तू स्वयं ही सुख का भंडार है। जब तेरी आकुलता का उत्पादन तूं स्वयं ही करता है तो उसका अभाव भी तू ही करेगा। जब आकुलता कहीं बाहर से नहीं आती तो अनाकुलता भी बाहर से कैसे आ सकती है। अत: ऐसे सुख का भण्डार तेरे में ही विद्यमान है, अत: तेरा सुख तुझे तेरे में से ही प्राप्त होगा। फलतः तू पर की आशा छोड़, भिखारीपना FATIMAINTEN
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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