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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व के ज्ञान में तो एक समय की प्रगट पर्याय में लब्धि और उपयोगात्मक भेद पड़ते हैं। हमको तो अपना प्रयोजन साधने के लिये एक समय की ज्ञान पर्याय में स्व-पर रहते हुए भी ध्रुव में एकाग्र कैसे हुआ जा सकता है; यह समझना है ।
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उपरोक्त समस्त चर्चा एवं द्रष्टान्त से यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि जिसका आकर्षण होता है बिना कोई प्रयास के, उपयोग उस ही ओर एकाग्र हो जाता हैं और अन्य विषय बिना प्रयास के स्वयं गौण ( उपेक्षित) रह जाते हैं करना नहीं पड़ते। तथा पहिले गौण (उपेक्षित) करने से भी उपयोग अपने विषय पर नहीं जाता। उपयोग तो बिना प्रयास के स्वतः आकर्षित विषय की ओर झुक जाता है। ऐसी छद्मस्थ ज्ञान की स्वाभाविक प्रक्रिया है ।
निष्कर्ष यह है कि जिस आत्मार्थी ने गुरु उपदेश, जिनवाणी अध्ययन, सत्समागम एवं अपने चिन्तन-मनन के द्वारा विकल्पात्मक ज्ञान में एकमात्र ध्रुव को ही शरणभूत मानकर, ध्रुवरूप ही अपना अस्तित्व माना होगा अर्थात् ध्रुव में ही अपनापन माना होगा तो ऐसे आत्मार्थी का उपयोग स्वतः ही ध्रुव की ओर आकर्षित होकर, एकाग्र हो जावेगा । और उसी समय पर्याय में अनेक ज्ञेय विद्यमान होते हुए भी उपयोग का विषय नहीं बनकर, लब्धि में रह जावेंगे। ऐसी सहज प्रक्रिया है। इसलिये अन्य कुतर्कों को छोड़कर एकमात्र ध्रुव को ही शरणभूत मानकर, उसमें ही अपनापन स्थापन करना चाहिये । यही द्वादशांग का सार है।
यह ध्यान में रखने योग्य है कि उपरोक्त समस्त चर्चा सुनकर क्षयोपशमज्ञान के धारणाज्ञान में समझकर निर्णय कर लेना सरल है, लेकिन भगवान अरहंत बनने की रुचि की उग्रता के बिना, ऐसा निर्णय कार्यकारी नहीं हो सकता । प्रायोग्यलब्धि में पदार्पण करने के लिये तो
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
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रुचि की उग्रता मुख्य है, क्योंकि रुचि की उग्रता से ही मिथ्यात्व की क्षीणता और अनंतानुबंधी की निर्बलता की तारतम्यता की व्याप्ति है; अकेले निर्णय से नहीं । रुचिपूर्वक का निर्णय ही प्रायोग्यलब्धि पारकर, करणलब्धिपूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त करने में सफल हो सकेगा । रुचि की उग्रता ही ध्रुव में आकर्षण उत्पन्न कर एकाग्रता प्राप्त कराने का कारण बनेगी।
जावे ?
रुचि की उग्रता किसे समझा जावे ?
प्रश्न रुचि की उग्रता को किस प्रकार मापा अर्थात् समझा
उत्तर - रुचि की उग्रता को हम सीताहरण के द्रष्टान्त द्वारा समझेंगे। सीताजी का वन में से रावण ने अपहरण कर लिया और उनको लंका के भी ऐसे स्थान पर रखा, जहाँ रामचन्द्रजी के नाम की गंध भी नहीं पहुँचे, सीताजी ऐसे स्थान पर असहाय रूप में दिन बिता रही थीं। ऐसी स्थिति में भी उनकी रुचि तो एकमात्र श्रीराम की ओर लगी रहती थी लेकिन कोई उपाय नहीं सूझता था। इसी संकट काल में यकायक एक बंदर का रूप धारण कर विद्याधर हनुमान ने श्रीराम की अंगूठी गुप्तरूप से सीताजी के पास पहुंचा दी। उस अंगूठी द्वारा अपने मुक्त होने का संकेत प्राप्त होने के बाद, सीताजी को अपनी मुक्ति का मार्ग दिखने लग गया। इस समय की सीताजी की रुचि का प्रकार एवं उग्रता को अपने अनुमान ज्ञान से समझना चाहिये। अब सीताजी की रुचि में अंधकार समाप्त होकर अपनी मुक्ति का निश्चय हो गया । अतः उनकी रुचि पहले की अपेक्षा कितनी उग्र हो गई होगी, इसका अनुमान तो लगा ही सकते हैं। अब तो जैसे-जैसे दिन समीप आते जाते हैं और उनकी मुक्ति के लिये किये जाने वाले संघर्षों में सफलता