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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व छोड़ और अपने अंदर भरे भण्डार का स्वरूप समझकर तू स्वयं, तेरे द्वारा ही, तेरे ही में से, तू स्वयं के लिए प्राप्त कर सकेगा।
श्रीगुरु के उपरोक्त वचन सुनकर तो आत्मार्थी की रुचि खुशी से हिलौरे मारने लगती है और रुचि का अंकुर पुष्ट होकर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है। ऐसे जीव को अब वास्तविक देशनालब्धि की पात्रता का प्रारंभ हो जाता है और अब वह तीव्ररुचिपूर्वक सद्गुरु का एवं सत्पुरुषों के समागम एवं जिनवाणी के अध्ययन में संलग्न हो जाता है। ऐसा जीव अभी पुण्य-पाप के उदय अनुसार बाहर के अनुकूलप्रतिकूल संयोगों सहित, गृहस्थोचित कार्यों व्यापारादि में संलग्न रहते हुए वर्तता है। लेकिन, उसकी रुचि ऐसे संयोगों में वर्तते हुए भी अपनी रुचि के पोषण के कार्यों की ओर प्रेरित करती रहती है। फलत: उन संयोगों में रहते हुए भी वह समय बचाकर, वास्तविक सुख के खजाने को खोजने में जाग्रत रहता है।
ऐसे आत्मार्थी को तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि किसी भी प्रकार अपने अंदर रहने वाले सुख के खजाने को खोजना चाहिये ? उक्त जिज्ञासा की पूर्ति हेतु वह श्रीगुरु का समागम प्राप्त कर विनयपूर्वक समाधान प्राप्त करता है ऐसे शिष्य को श्रीगुरु समझाते हैं कि हे भव्य ! तुझे यह तो विश्वास है कि अनादि काल से अभी तक तू विद्यमान रहनेवाला पदार्थ है और तेरा अनंत काल तक अस्तित्व बना रहेगा। निगोद में अनन्त काल तक रहकर भी तेरा अस्तित्व तो आज तक अक्षुण्ण बना चला आ रहा है। साथ में यह भी तुझे विश्वास है कि तेरा अस्तित्व कायम रहते हुए भी एक रूप नहीं रहा। निगोद दशा भी तेरी ही थी और अनेक पर्यायें (शरीर) परिवर्तन करते हुए भी तू वही का वही है। इससे स्पष्ट भासित होता है कि तेरे एक के ही अस्तित्व के दो रूप हैं। एक तो नित्य रहने वाला और दूसरा बदलने वालापलटने वाला।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
आगम का सिद्धान्त भी है "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" श्रीगुरु पूछते हैं कि दोनों प्रकार के अस्तित्व में से तुझे किस रूप में बने रहना इष्ट है ? सहज रूप से उत्तर मिलेगा कि अस्तित्व का बदलना ही तो मृत्यु है, इसलिये हर क्षण जीवन-मरण कौन चाहेगा? फलत: एकरूप ध्रुव बने रहना ही सबको इष्ट है। स्थिति भी वास्तव में ऐसी ही है, मेरा अस्तित्व तो ध्रुव रूप ही है।
तात्पर्य यह है कि अपना जीवन ध्रुवरूप चाहने वाला सुख भी ध्रुवरूप ही चाहता है। जिसका क्षण-क्षण नाश हो जावे ऐसा सुख कोई भी नहीं चाहेगा। तब श्रीगुरु करुणापूर्वक समझाते हैं कि भाई तेरे अनाकुल सुख का खजाना वह ध्रुव ही तो है। इस क्षण-क्षण बदलने वाली पर्याय में तेरा ध्रुवसुख कैसे रह सकेगा। अत: तेरी एक समयवर्ती पर्याय में से तुझे सुख मिलेगा कैसे ? असम्भव है, अत: निःशंक होकर विश्वास कर कि अक्षुण्ण रहनेवाले अनन्त सुख का खजाना (भण्डार) तू स्वयं ही है। जब तू तेरा जीवन ही ध्रुव मानता है और सुख भी कभी नाश नहीं होवे ऐसा चाहता है तो विचारकर कि ऐसा सुख ऐसी अध्रुवअनित्य पर्याय जिसका जीवनकाल ही मात्र एक समय का है, उसमें से कैसे प्राप्त होगा। ऐसा समझकर ध्रुव को ही शरणभूत मानकर, पर्याय का प्रेम (मोह) छोड़ दे और उस ही का आश्रयकर अर्थात् निःशंकता पूर्वक अपनेपने की श्रद्धा कर।
भगवान अरहत का आत्मा भी पूर्वभवों में निगोद से निकलकर ही मनुष्य हुआ था; वह भी उन भवों में तेरे समान दुखी रहता था। उनका सुख भी उनके ध्रुव रूपी खजाने में अनादि काल से अक्षुण्ण बना चला आ रहा था। उनने भी जब अपने ध्रुव के खजाने की श्रद्धा की तो उनकी भी अनादिकाल से चली आ रही पर्यायदृष्टि अर्थात् पर्याय में अपना अस्तित्व मानने की मान्यता छूट गई अर्थात् समाप्त
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Pालकर
मार