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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
इसी प्रकार आत्मार्थी को एक ध्रुव ही अपनेपनरूप आकर्षण का विषय बनने पर समस्त पर ज्ञेयाकार उपस्थित रहते हुए भी गौण रह जाते हैं; भगवान अरहंत की यह क्रिया सहज होती रहती है, गौण-मुख्य करनी नहीं पड़ती।
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तात्पर्य यह है कि आत्मार्थी को अरहंत बनने अर्थात् सर्वज्ञरागी बनने के लिये, एकमात्र अपने ध्रुव त्रिकाली ज्ञायकभाव में उग्र रुचिपूर्वक अपनेपन का आकर्षण उत्पन्न करना चाहिये। यही सार है; क्योंकि वर्तमान में मेरा सर्वज्ञ एवं वीतराग स्वभाव ध्रुव में ही तो विराजमान है और ध्रुव तो प्रत्येक पर्याय के साथ निरंतर वर्तता ही रहता है। इसलिये जिसमें उस स्वभाव की विद्यमानता होगी, उसी में से ही तो पर्याय में प्रगट होगी, अतः मुझे मेरे आकर्षण का विषयभूत अपना अस्तित्व ही एक ध्रुव रूप मानते हुए उस ही में अपनी परिणति (आत्मा के समस्त पुरुषार्थ) को तीव्रतम रुचिपूर्वक एकाग्र कर लगा देना चाहिये । यही मात्र द्वादशांग का सार है ।
ज्ञानी की परिणति में सर्वज्ञता मानना मिथ्या
प्रश्न- ज्ञानी को तो शुद्ध परिणति प्रगट हो जाती है, और उसमें सर्वगुणों के अंश प्रगट हो जाते हैं। आत्मा में सर्वज्ञता नाम का गुण है अतः उसका भी अंश प्रगट हो जाता है। इससे फलित होता है कि सर्वज्ञत्व भी परिणति में आंशिक प्रगट हो जाता हैं ?
उत्तर - हे आत्मार्थी ! यह बात तो परम सत्य है कि निर्विकल्प आत्मानुभूति के काल में ही शुद्ध परिणति का जन्म होता है, उसी समय श्रद्धा की प्रगटता के साथ अनंतानुबंधी के अभावात्मक ज्ञान स्व में एकाग्र होकर आंशिक आत्म स्थिरता ( लीनता) प्रगट कर लेता है। दर्शन - ज्ञान - चारित्र तीनों के सम्यक् होने पर, पर्याय में आंशिक शुद्धि
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
प्रगट होने से मोक्षमार्ग प्रारंभ हो जाता है। फलतः आत्मा के अनंतगुण भी सम्यक् होकर आंशिक शुद्ध हो जाते है। ऐसी पर्याय में शुद्ध परिणति का जन्म होता है। जिनवाणी का वाक्य है "सर्वगुणांश सो सम्यक्” । तात्पर्य यह है कि आत्मा तो अभेद अखण्ड, अनन्त गुणों का पिण्ड एक है, उस अंभेद अखण्ड द्रव्य की अनन्त गुणों से समन्वित अभेद एक ही पर्याय होती है। गुणभेदों के कार्यों को समझने के लिये गुणभेदों की मुख्यता से अनन्तगुणों की अनन्त पर्यायों के रूप में चर्चा की जाती है, लेकिन समझने का विषय होने से, व्यवहार नय का विषय कहकर उसे वैसा ही स्वरूप मानने का निषेध भी किया गया है।
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निष्कर्ष यह है कि अभेद अखण्ड द्रव्य की अखण्ड पर्याय में, सभी गुणों में सम्यक्ता आ जाने से, सबकी सम्यक्ता की प्रगटता का आंशिक वेदन (अनुभव) भी प्रगट हो जाता है, सर्वज्ञत्व शक्ति का नहीं, क्योंकि ज्ञानी की पर्याय क्षयोपशमिक है और सर्वज्ञत्व क्षायिक ज्ञान में प्रगटती है। ऐसे उस अभेद अखण्ड स्वाद का वेदन (स्वाद) अर्थात् अनन्त गुणों का सम्मिलित अतीन्द्रिय आनन्द भी आंशिक प्रगट हो जाता है; ज्ञानी की पर्याय में निरन्तर बहने वाले सब गुणों के सम्मिलित भावों का प्रतिनिधि, एक अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद निरंतर परिणमता रहता है । इसका वेदन (स्वाद) सम्यक्त्व रहने तक सविकल्प दशा में भी निरंतर बना रहता है, उसका नाम शुद्धपरिणति है। शुद्ध परिणति कथन मात्र की स्थिति नहीं है, वह तो महान महान उपलब्धि होकर अन्तरंग की विचारधारा के साथ-साथ बाह्य जीवन परिवर्तन कर देनेवाली उपलब्धि है।
ऐसी परिणति उत्पन्न होते ही ज्ञानी को पर के प्रति अकर्तृत्व भाव उत्पन्न कराने वाले महामंत्र क्रमबद्धपर्याय की सम्यक् श्रद्धा प्रगट होकर, पर के प्रति सहज उपेक्षावृत्ति उत्पन्न हो जाती है तथा सहज रूप
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