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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व से इसी प्रकार के विचार भी उत्पन्न होकर सहज ही प्रशम-संवेगअनुकम्पा-आस्तिक्य भाव बने रहकर वैराग्य परिणति सहित, बिना हठ के सहज ही बाह्याचार भी चरणानुयोग अनुसार हो जाता है ऐसी महान उपलब्धि शुद्ध परिणति की है।
__अज्ञानी को तो ऐसी परिणति का अंश भी प्रगट नहीं होता, उसकी तो परिणति अशुद्ध है, उसमें शुद्ध द्रव्य के शुद्ध गुण की शुद्ध पर्याय का अंश कैसे रह सकेगा ? परिणति तो पर्याय ही का अंश है अत: अंश ही अशुद्ध होगा तो उसमें शुद्ध परिणति कैसे रह सकती है। अत: अज्ञानी को तो सर्वज्ञत्व शक्ति के अंश होने की किसी प्रकार भी संभावना सिद्ध नहीं होती, अज्ञानी का तो ज्ञान ही मिथ्या है, मिथ्याज्ञान में तो सम्यक् श्रुतज्ञान का भी सद्भाव नहीं हो सकता और सर्वज्ञता तो सम्यक् के साथ-साथ क्षायिक पर्याय है। अत: छद्यस्थ के सर्वज्ञता का अंश है- यह किसी प्रकार भी मान्य नहीं हो सकता।
प्रश्न - तब ज्ञानी की परिणति में तो सर्वज्ञता का अंश प्रगट हो जाना चाहिये ?
उत्तर-ऐसा मानना भी भ्रम है; क्योंकि सर्वज्ञता (केवलज्ञान) तो क्षायिक पर्याय है; उसका तो जन्म ही क्षयोपशमिक पर्याय के अभाव में होता है, उसके सद्भाव में तो उसका जन्म ही नहीं हो सकता। क्षायिक पर्याय के टुकड़े होकर अंश प्रगट नहीं होते और क्षयोपशम ज्ञान का सद्भाव तो बना ही रहता है, उसका अभाव नहीं होता।
प्रश्न - तब सर्व गुणों में सम्यक्पने का अंश प्रगट नहीं होता - ऐसा मानना पड़ेगा?
उत्तर - उस कथन का ऐसा अभिप्राय नहीं है; सर्वगुणों के अंश सम्यक् हो जाते हैं, अतः सम्यक्पना तो सर्वगुणों में हो जाता है।
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
59 अत: ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है। साथ ही श्रद्धा तो पूर्ण सम्यक् हो जाती है। श्रद्धा में संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय आदि का अभाव होकर स्वभाव की अर्थात् सर्वज्ञता की नि:शंक श्रद्धा हो जाती है आदिआदि। इसी का नाम सर्वगुणों का अंश प्रगट होना है। इसके अतिरिक्त सर्वज्ञता तो ज्ञान का ही विशेषण है। लेकिन संसारी प्राणी को ज्ञान तो रहता है लेकिन क्षायिक पर्याय नहीं होती; सर्वज्ञता अर्थात् केवलज्ञान तो क्षायक ज्ञान है और संसारी की पर्याय १२ गुणस्थान तक भी क्षायोपशमिक रहती है। इसलिये वहाँ भी केवलज्ञान नहीं होता, ज्ञान मति श्रुत ही रहता है। केवलज्ञान तो मति श्रुत के अभाव होने पर ही हो सकेगा तथा क्षायिकज्ञान के अंशत: प्रगट होने का जिनवाणी में विधान नहीं है। अत: सर्वज्ञत्व का अंशत: प्रगट होना मानना मिथ्या है। सर्वज्ञत्व शक्ति आत्मा में नहीं होती तो अरहंत की सर्वज्ञता कैसे प्रगट होती। इसलिये सर्वज्ञत्व शक्ति का अस्तित्व तो द्रव्य में त्रिकाल रहता है, इस ही शक्ति की प्रगटता द्रव्य की पूर्णता के साथ प्रकट हो जाती है।
प्रश्न- इससे यह मानना किस प्रकार सत्य नहीं है कि सर्वज्ञता का अस्तित्व तो जीवमात्र को (ज्ञानी-अज्ञानी सबको) सदैव विद्यमान रहता है?
उत्तर-अस्तित्व तो जिनवाणी भी कहती है। अस्तित्व मानना असत्य नहीं है, लेकिन उसका अस्तित्व द्रव्य के ध्रुव अंश में ध्रुव बना रहता है, लेकिन ध्रुव तो ध्रुव ही है, द्रव्य की सामर्यों का प्रकाशन परिणमन तो पर्याय द्वारा ही होता है। अत: सर्वज्ञत्व शक्ति ध्रुव में सदैव विद्यमान रहते हुए भी, प्रकाश में आये बिना अर्थात् परिणमन में आये बिना उसका लाभ वेदन तो अंश मात्र भी प्राप्त नहीं होता। पर्याय क्षायिक हुए बिना ज्ञानी की पर्याय अथवा परिणति में उसका प्रगटपना रहता है, ऐसा मानना भ्रम है एवं पर्यायदृष्टि है।