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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व जानने की लालसा से क्यों दुखी होता है, पर के साथ में वास्तव में तेरा जानने का भी संबंध नहीं है। ज्ञेय तो स्वतंत्र सत्ता धारी पदार्थ हैं. वे अपने कालक्रमानुसार क्रमबृद्ध परिणमन करते ही रहते हैं व करते ही रहेंगे उनको जानकर भी तू क्या कर सकेगा, अत: तेरी उनको जानने की लालसा भी निरर्थक है। ऐसा बताकर कर्तृत्व के साथ-साथ जानने की बुद्धि भी छुड़ाते हैं, उसका आकर्षण समाप्त कर आत्म-सन्मुखता का पुरुषार्थ जाग्रत कराते हैं।
साथ ही समझाते हैं कि तेरी ज्ञानपर्याय में जहाँ परसंबंधी ज्ञेयाकार हैं, वहाँ तेरे स्वसंबंधी ज्ञेयाकार भी विद्यमान हैं; अत: पर संबंधी ज्ञेयाकारों का लक्ष्य छोड़कर स्वसंबंधी ज्ञेयाकारों की ओर आकर्षित हो । उसके फलस्वरूप तुझे अतीन्द्रिय अनाकुल आनन्द की प्राप्ति होगी, इस प्रकार का निर्णय कराकर आचार्य श्री के उक्त कथन का उद्देश्य वीतरागता उत्पादन कराने का है।
उपरोक्त उद्देश्य के विपरीत कोई अज्ञानी उक्त कथन का ऐसा तात्पर्य निकाले कि आत्मा तो पर को जानता ही नहीं है, जबकि पर का जानना तो वर्तमान अनुभव में भी आ रहा है; तो ऐसी मान्यता से तो वीतरागता का घात होता है। अत: ऐसा तात्पर्य जिनवाणी का नहीं हो सकता।
इसप्रकार पर का ज्ञान वर्तते हुए भी ध्रुव में एकाग्रता हो सकती है। पर का ज्ञान में रहना बाधक नहीं हो सकता।
उपरोक्त कथन के समर्थन में भगवान अरहंत के केवलज्ञान का उदाहरण महत्त्वपूर्ण है, उनकी केवलज्ञान की पर्याय में, अपने साथसाथ लोकालोक के समस्त ज्ञेयों के ज्ञेयाकार भी एक साथ प्रकाशित हो रहे हैं। लेकिन फिर भी वे अपने ज्ञेयाकारों में एकाग्र रहते हुए तन्मय
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व रहते हैं और अनन्त अतीन्द्रिय सुख में मग्न रहते हैं और साथ ही वर्तने वाले परज्ञेयों सम्बन्धी ज्ञेयाकारों को जानते हुए भी उनमें तन्मय नहीं होते हुए प्रवर्तते रहते हैं।
कहा भी है - "सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन" तथा परमात्मप्रकाश ग्रंथ के अध्याय प्रथम की गाथा ५२ की टीका में बहुत स्पष्ट कहा है कि "केवली भगवान परज्ञेयों को जानते अवश्य हैं लेकिन तन्मयता रहित जानते हैं और स्व को तन्मयता पूर्वक जानते हैं।" इससे स्पष्ट है कि पर ज्ञेयाकारों के प्रति अपनेपन अथवा आसक्ति सहित का आकर्षण ही स्व के एकाग्र होने में बाधक है, मात्र जानना नहीं। इस ही सिद्धान्त को प्रकाशित करती हुई भगवान अरहंत की प्रतिमा विराजमान है, उनकी नासाग्र खुली हुए दृष्टिवाली ध्यानस्थ मुद्रा प्रत्यक्ष प्रकाशित करती है कि ज्ञेयों की उपस्थिति मात्र अपने आपमें तन्मय रहने में बाधक नहीं है। इतना अवश्य है कि उनके मोह का अभाव हो जाने से ऐसी ज्ञानक्रिया सहजरूप से स्वाभाविक सदैव वर्तती रहती है, लेकिन हम संसारी प्राणियों को ध्रुव का आकर्षण उत्पन्न होने पर, सहजरूप से ध्रुव मुख्य हो जाता है उस समय अन्य ज्ञेय स्वयं ही गौण हो जाते हैं, गौण करने नहीं पड़ते। लेकिन जबतक परज्ञेयों में एकत्वबुद्धि अथवा आसक्ति बनी रहेगी, परज्ञेय कभी गौण नहीं हो सकते, जैसे किसी महोत्सव में किसी माता का पुत्र खो गया है और वह व्यवस्थापकों को मिल जाता है तो व्यवस्थापक स्टेज पर खड़े होकर घोषणा करता है कि जिस माता का यह पुत्र हो वह आकर ले जावे, ऐसा देखते ही वह माता हजारों व्यक्तियों की भीड़ को चीरते हुए, अपने पुत्र की ओर दौड़ती है; इस प्रक्रिया में उसने हजारों व्यक्तियों को देखा भी, जाना भी; लेकिन अपना पुत्र मुख्य होने से, उसकी दृष्टि में सबका ज्ञान होते हुए भी, वे सब सहज रूप से गौण रह जाते हैं।
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