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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व ज्ञेय पदार्थों से अनिवार्य निमित्त-नैमित्तिक संबंध विद्यमान है। दोनों की तत्समय ही विद्यमानता की व्याप्ती होने से नहीं जानना तो आगम विरुद्ध कथन है। जिसमें अज्ञानी को तो उपरोक्त विषय का ज्ञान ही नहीं है अत: वह तो ज्ञेयाकारों को जानता ही नहीं, वरन् परपदार्थ को ही अपना ज्ञेय मानता है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी-अज्ञानी जानता तो अपने ज्ञेयाकारों को ही है, लेकिन अज्ञानी को तो परपदार्थों में ही अपनापन (एकत्वबुद्धि) होने से वह तो ज्ञेयाकारों की उपेक्षा करते हुए ज्ञेयाकारों के निमित्तभूत परपदार्थों को ही जानता है एवं उनको प्राप्त करने के लिये झपट्टे मारने की चेष्टा करता है। भूल तो वास्तव में अपनेपने की मान्यता की है, पर को जानने की नहीं। अत: पर का नहीं जानना किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होता।
प्रश्न - उक्त प्रकार से ज्ञेयाकारों के जानने सम्बन्धी और परपदार्थ को सीधा नहीं जानने संबंधी भ्रम उत्पादक कथन ही क्यों किया गया है?
उत्तर - ऐसा नहीं है, उपरोक्त कथन तो अनादि कालीन अज्ञानता को दूरकर ज्ञानी बनाने के लिये है।
वास्तव में जिनवाणी के हर एक कथन का अथवा समस्त जिनवाणी का तात्पर्य तो एक मात्र वीतरागता है। अनादि से जीव मिथ्यात्व एवं रागादि से दुःखी हो रहा है; ऐसे अज्ञानी को सत्यार्थ मार्ग बता कर वीतरागता उत्पन्न कराकर अतीन्द्रिय सुख प्राप्त कराने का आचार्यों का उद्देश्य होता है।
उक्त उद्देश्य प्राप्त करने हेतु उपरोक्त कथन है, तात्पर्य ऐसा है कि अज्ञानी की अनादि से पर में एकत्वबुद्धि अर्थात् अपनापन है। पर में अपना शरीर एवं शरीर में संबंधित सभी पदार्थसम्मिलित हैं। फलतः
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
53 वह उन्हीं के रक्षण पोषण में निरन्तर व्यस्त रहता है। ऐसे जीव को वास्तविक स्थिति का ज्ञान करा कर, पर की ओर का आकर्षण समाप्त करने के लिये उपरोक्त कथन है। आचार्य श्री समझाते हैं कि जिनको तू अपना मान रहा है, उनके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव सभी तेरे से भिन्न हैं; तेरे प्रदेशों में उनके प्रदेशों की नास्ति है, इसलिये तेरी इच्छा के अनुसार तेरे अनेकों प्रयासों पर भी कार्य नहीं होता, ऐसा हर एक प्राणी को स्वयं अच्छी तरह अनुभव है। अत: इनको अपना मानकर रक्षण पोषण के भाव करने पर भी सफल होता नहीं। अत: सिद्ध होता है कि तेरी यह मान्यता विपरीत है। इसप्रकार के सत्यार्थ उपदेश के द्वारा अज्ञानी की पर में कर्तृत्वबुद्धि की मान्यता छुड़ाकर, आत्मसन्मुख पुरुषार्थ करने की प्रेरणा प्रदान की है।
। तत्पश्चात् पर के जानने की लालसा से परसन्मुखता नहीं छोड़ता, अत: उसको जानने की वास्तविकता समझाकर जानने की भी लालसा छुड़ाने के लिये ऐसा समझाया है, कि आत्मा की जानने की क्रिया तो आत्मा में ही होगी, साथ ही आत्मा जानने के लिये अपने प्रदेशों को छोड़कर, ज्ञेय के पास जाता नहीं और ज्ञेय भी अपने प्रदेश छोड़कर आत्य तक आते नहीं फिर भी जानना तो होता ही है। अत: वास्तविक स्थिति समझाते हैं कि आत्मा की ज्ञानपर्याय अपनी स्वयं की योग्यता से ज्ञेय के आकार हो जाती है, उसमें ज्ञेय का कोई योगदान नहीं होता। फिर भी वह ज्ञानपर्याय किस ज्ञेय के आकार बनी है, मात्र उसका ज्ञान कराने के लिये ज्ञानपर्याय को ज्ञेयाकार कहा गया है। वास्तव में तो वह ज्ञान ही ज्ञेय के आकार परिणमा है। इतना ज्ञान कराने मात्र के लिये ज्ञेय का ज्ञान के साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध कहा जाता है; क्योंकि ज्ञेयाकार और ज्ञेय की समकाल प्रत्यासति है।
उपरोक्त स्थिति समझाकर आचार्यश्री कहते हैं कि परद्रव्यों को
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