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________________ 50 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व लेकिन विकल्पों के साथ विकल्पों को जानने वाली ज्ञानपर्याय भी तो तत्समय ही कार्यरत है। दोनों के एक ही साथ कार्यरत होने पर भी तेरा ज्ञान ज्ञानक्रिया की उपेक्षा करके, विकल्प की ओर आकर्षित होता है, यह ही परसमयपने का प्रमाण है। ज्ञानक्रिया जिसका लक्षण है, ऐसा त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवतत्त्व, लक्षण का लक्ष्य है। एवं उसके साथ ही ज्ञानक्रिया का तादात्म्य सम्बन्ध है। अत: ज्ञान में ज्ञान एकाग्र होने से, उसको लक्ष्य की प्रसिद्धि (प्राप्ति) होती है। ऐसा परमागम का सार है। विकल्प भी चारित्र गुण की विकृत पर्याय है, उस पर्याय का काल एक समय का है और उसका उत्पाद उसके जन्म क्षण में उसकी स्वयं की पर्यायगत योग्यता से हुआ है, वह भी अपने समय का सत् है, उसके सत् को असत् करने की क्षमता किसी में भी नहीं है; अत: विकल्प की उत्पत्ति उसके कारण से हुई है, और दूसरे समय तो वह स्वयं ही व्यय (नाश) हो जायेगी। लेकिन साथ में वर्तने वाली ज्ञानक्रिया तो स्वभावभूत क्रिया है, वह तो कभी नष्ट होने वाली नहीं है, अत: ज्ञानक्रिया के द्वारा ज्ञायक में अपनत्व मानने से ज्ञानक्रिया स्वयं विकल्पों की ओर आकर्षित नहीं होकर ज्ञायक की ओर आकर्षित हो जावेगी। इस प्रकार विकल्पों की विद्यमानता भी तेरे ज्ञायक में अपनत्व मानने में बाधक नहीं रहेगी। पर का ज्ञान होते रहने से ज्ञान स्व में एकाग्र कैसे होगा? प्रश्न - जब विकल्पादि पर का ही ज्ञान होता रहेगा तब ज्ञान स्व में एकाग्र कैसे हो सकेगा ? उत्तर - प्रमाण (ज्ञान) का कार्य तो जानने का है और ज्ञेय (प्रमेय) का कार्य ज्ञान के विषय होने का है। प्रमेयत्व गुण तो स्व निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व 51 (जीव) और पर (जीवसहित छहों द्रव्यों) में है। और ज्ञान (जाननेवाला) गुण जीव मात्र में है। ऐसी स्थिति में ऐसा कैसे सम्भव है कि जिनमें प्रमेयत्व गुण विद्यमान है उनमें से ज्ञान अकेले स्व को ही जाने अथवा स्व को न जानकर (अकेले) पर को ही जाने अथवा अकेले द्रव्य को ही जाने उसके किसी गुण अथवा पर्याय को नहीं जाने। तात्पर्य यह है कि स्व और पर का ज्ञान तो जीव मात्र को किसी भी समय हुये बिना रह ही नहीं सकता। इसका प्रमाण भी है कि केवली भगवान को स्व के समस्त गुण पर्यायों सहित एवं परद्रव्यों के गुणपर्यायों सहित सबका ज्ञान एक साथ निरन्तर वर्तता है; क्योंकि प्रमाण और प्रमेय की व्यवस्था सहज स्वाभाविक है। वह खण्डित कभी नहीं हो सकती। प्रश्न - हम छद्मस्थ जीवों को भी ज्ञान तो है, लेकिन पर को जानने से विकल्प (राग) उत्पन्न होता है। इससे ऐसा स्पष्ट भासित होता है कि पर को जानना ही रागादि का उत्पादक है ? उत्तर - ऐसा नहीं है, मात्र पर को जानना रागादि का उत्पादक कारण नहीं है, वरन् पर में अपनापन अथवा आकर्षण ही मोह रागादि के उत्पादन का कारण है। प्रश्न - परद्रव्यों को तो ज्ञानी, अज्ञानी, केवलज्ञानी कोई भी नहीं जानता, स्व की पर्याय में स्थित ज्ञेयाकारों को ही तो जानता है। अत: परद्रव्यों को नहीं जानता ऐसा कथन मिथ्या कैसे है, क्योंकि स्व को ही तो जाना है, पर को नहीं ? उत्तर - यह तो सत्य है कि वास्तव में परसंबंधी ज्ञेयाकार ही ज्ञान के ज्ञेय होते हैं, परपदार्थ नहीं होता, लेकिन ऐसा कैसे माना जा सकता है कि पर को नहीं जाना; क्योंकि तत्समय ही ज्ञेयाकारों से व MAMI.......naw.oxaasanswNORIEDOSBाराकाजमायलावलाद्धमानण्टाफहराउRCRAZRS umaaraamsane
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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