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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व प्रयास करने लगती है। फलत: श्रद्धा ज्ञान चारित्र तीनों का एक ही विषय बन जाता है और वही स्वसमय अथवा परसमय होने का कारण बन जाता है।
तात्पर्य यह है कि जानते हुए परिणमते रहना यह तो जीव का मूल स्वभाव है, अत: उसकी जाननक्रिया तो, गुण अथवा दोष उत्पादक कही ही नहीं जा सकती। उसकी जाननक्रिया के स्व संबंधी ज्ञेयाकार अथवा परसंबंधी ज्ञेयाकारों की विद्यमानता तो स्वाभाविक कार्य है ? उनका जानना गुण-दोष उत्पादन का कारण कैसे बन सकता है ? अतः उनका मात्र जानना परसमयता अथवा स्वसमयता का कारण नहीं बन सकता। जाननक्रिया तो ज्ञान गुण की पर्याय है, लेकिन उसी समय, •उसके साथ वर्तने वाली श्रद्धागुण की पर्याय, जिसका कार्य अपना मानना है वह भी वर्तती है और उस समय ही चारित्र गुण की पर्याय, जिसका कार्य - श्रद्धा ने जिसको स्व माना हो, उसी में लीनता करना है, वह भी तत्समय ज्ञानपर्याय के साथ ही परिणमती है; क्योंकि सबका स्वामी तो एक जीव पदार्थ है, उसी में आत्मा के अनंत गुण अभेद होकर रहते व परिणमते हैं। अतः ज्ञान की जाननक्रिया के साथ सभी गुणों का परिणमन रहता है।
निष्कर्ष यह है कि जाननक्रिया के साथ वर्तने वाली श्रद्धा ने जिसको अपना माना होगा अर्थात् अपने ध्रुवरूप अस्तित्व में ही स्वपना माना होगा तो ज्ञान भी ध्रुव को ही स्व जानने लगेगा ( पहले परलक्ष्यी ज्ञान में निर्णय किया था) और चारित्र भी उसी में लीन होकर तीनों एक होकर स्व में एकत्वपूर्वक लीन होकर परिणमने लगते हैं साथ ही अनंत गुणों का परिणमन भी तद्रूप परिणमने लगता है, फलत: वही स्वसमय है लेकिन उसी जाननक्रिया के साथ वर्तने वाली श्रद्धा ने अगर ध्रुव के अतिरिक्त, ज्ञान में ही स्थित परसंबंधी ज्ञेयाकारों में किसी
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
भी ज्ञेयाकार रूप अपने को माना होगा अर्थात् मैं रागी -द्वेषी हूँ अथवा शरीर में हूँ तथा शरीर संबंधित अन्य कोई भी पदार्थ मेरे हैं आदि मान होगा तो चारित्र भी उन्हीं में लीनता करने की चेष्टा करेगा। इस प्रकार श्रद्धा की विपरीतता के साथ, चारित्र भी उनमें ही लीनता अर्थात् उनके रक्षण पोषण में लग जाता है। फलतः ऐसा अज्ञानी जीव, पर में एकत्व कर लीन होता हुआ पर समयपने को प्राप्त होता है। इस प्रकार जीव की स्वसमय परसमयपने की द्विविधता प्रगट होती है।
उपरोक्त चर्चा देशनालब्धि के अन्तर्गत समझकर श्रद्धा - (विश्वास) में दृढ़ता के साथ ऐसा निर्णय आना चाहिये कि संसार के अभाव करने का उपाय तो मात्र अपनेपन की श्रद्धा बदलना ही है। मेरा अस्तित्व तो उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य युक्तं सत् में से मात्र ध्रुव रूप ही है। उत्पाद-व्यय स्वभावी पर्याय के साथ ही ज्ञान में ज्ञात होने वाले सभी ज्ञेयों रूप में नहीं हूँ, वे मेरे नहीं हैं, मैं उनका नहीं हूँ आदि-आदि । इसप्रकार के चिन्तन-मनन द्वारा किये गये निर्णय के द्वारा एकमात्र ध्रुव ही आकर्षण का विषय अर्थात् श्रद्धा का श्रद्धेय, ध्यान का ध्येय एवं ज्ञान का ज्ञेय निर्णय में रह जाना चाहिये। और साथ में वर्तने वाली रुचि भी उसी ओर केन्द्रित होकर पुरुषार्थ भी शीघ्र प्राप्त करने के लिये उग्र होकर उस ओर चेष्टावान् हो जाना चाहिये ।
ध्रुव
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में एकत्व होने में बाधक कारण
प्रश्न - ध्रुव को अपना मानने के अभ्यास में भी पर सम्बंधी विकल्पों का उठना बाधक है ?
उत्तर - हे आत्मार्थी बन्धु ! रागी जीव को मिथ्यात्व एवं राग की भूमिका में विकल्पों का आना तो अवश्यंभावी है। ज्ञानी को भी चारित्रमोह की ३ कषायें विद्यमान रहने से विकल्प तो आते ही हैं।