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निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व आचार्य श्री समझाना चाहते हैं कि उपरोक्त पवित्र ज्ञायक स्वभावी आत्मा, जिसकी जाननक्रिया में स्वंसंबंधी ज्ञेयाकार एवं परसंबंधी ज्ञेयाकार एक साथ ही स्थित हैं; उनमें से अगर पर में अथवा रागादि भावों में अपनेपने की मान्यता होती है, तो आत्मा उनकी ओर आकर्षित होकर अपने ज्ञान में मात्र जानता ही नहीं वरन् एकत्वपूर्वक जानता हुआ परिणमता है और परसमय हो जाता है। और जब वही परसमयता को प्राप्त जीव, गुरु उपदेश, जिनवाणी के सम्यक् अध्ययन एवं सत्समागम एवं चिंतन, मनन द्वारा सम्यक्भेदज्ञान ज्योति प्रगट कर, अपने त्रिकाली ज्ञायकस्वभावी ध्रुवतत्त्व के साथ एकत्व कर लीन होता है, तब वह जीव अपने स्वभाव में (एकत्वपूर्वक) अपनेपने की मान्यता रूप सम्यक्श्रद्धा एवं अपने स्वरूप के प्रत्यक्षज्ञान तथा उसी अपने स्वभाव में लीनतारूप सम्यक्चारित्र को प्राप्त कर, स्वसमय हो जाता है।
इस प्रकार जीव की भूल कैसे होती है; ऐसे प्रश्न का उत्तर अथवा समाधान उपरोक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है। जानना तो आत्मा का त्रैकालिक मूल स्वभाव है। अत: उसकी जाननक्रिया तो होती ही रहेगी, अत: जबतक आत्मा पर को अपना मानने संबंधी भूल नहीं छोड़ेगा तबतक मिथ्यात्वी बना रहेगा।
प्रश्न - रागादि तो आत्मा की पर्यायें हैं, इनके ज्ञान से पर समयपना क्यों ?
उत्तर - न तो रागादि संबंधी ज्ञेयाकारों का जानना और न पर द्रव्य संबंधी ज्ञेयाकारों का जानना, परसमयता का कारण है; वरन् उनका एकत्वपूर्वक (अपना मानने की मान्यता सहित) जानना, परसमयपने का कारण है।
प्रश्न-रागादि तो आत्मा की ही पर्यायें है, वे आत्मा की होने पर भी एकत्व करने योग्य क्यों नहीं हैं ?
निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व
उत्तर - आत्मा तो अनादि अनंत रहने वाला पदार्थ है अत: उसका स्व तो वही हो सकता है, जो अनादि अनन्त उसके साथ रह सके एवं अनाकुलता रूपी सुख प्रदाता हो, लेकिन ये रागादि तो एक क्षण में पलट जाने वाले एवं आकुलता रूप दुख के उत्पादक भाव हैं। अत: ये मेरी जाति से विपरीत जाति के तथा अनित्य होने से स्व नहीं माने जा सकते।स्व तो मात्र वही है जो मेरे साथ ध्रुव बना रहकर आनंद का प्रदाता हो। इसलिये मात्र मेरा ध्रुव भाव ही मेरा स्व है, अत: उस ही में एकत्व करना (अपना मानना अर्थात् उस रूप ही अपना अस्तित्व मानना) ही एकमात्र स्वसमयपने का उपाय है।
प्रश्न - जाननक्रिया वाली पर्याय भी तो अनित्य है ?
उत्तर - ज्ञान की पर्याय भी अनित्य स्वभावी होने से वह भी स्व मानने योग्य नहीं है। जाननस्वभाव (ज्ञानगुण) जो जीव के साथ अनादि अनंत सदैव एकरूप बना रहता है; ऐसा स्वभाव तो ध्रुवतत्त्व में रह सकता है। मेरी पर्याय तो हीनाधिक रूप तथा ज्ञेयपरिवर्तन करती हुई अनित्य स्वभावी है स्व मानी जाने योग्य नहीं है। इस प्रकार स्व माना जाने योग्य तो अकेला मेरा ध्रुवतत्त्व ही है। पर्याय कैसी भी हो वह मेरा स्व नहीं है। इसलिये तत्संबंधी ज्ञेयाकारों में एकत्व होना भी अकेला परसमय का ही कारण है।
इसके अतिरिक्त मेरी ज्ञान-पर्याय तो विषय करने वाली ही है, वह जिसको विषय बनावेगी, आत्मा के श्रद्धागुण की पर्याय उसी में एकत्व करेगी। ज्ञान पर्याय का विषय ध्रुव संबंधी ज्ञेयाकार ही मात्र स्व के रूप में है। उसके अतिरिक्त जो भी हों, वे सभी ज्ञेयाकार, परसंबंधी ज्ञेयाकार हैं। अत: श्रद्धा जिसको अपना मानेगी, ज्ञान तो उसी ओर आकर्षित होता हुआ उसे अपना विषय बनाने लगता है, उसी समय श्रद्धा के साथ वर्तती हुई चारित्र की पर्याय, उस ही में लीन होने का