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________________ कुछ प्रश्नोत्तर 39 गुरुजी ने फिर पूछा - "मैं भी नहीं" "हाँ, आप भी नहीं"; - अर्जुन के इतना कहते ही गुरुजी ने कहा - "छोड़ो बाण" बाण छूटा और जाकर अपने सही निशाने पर लगा। गुरुजी उसी अर्जुन से प्रसन्न हुए, जिसने दृढ़तापूर्वक कह दिया कि आप भी नहीं दिखते। न केवल कहा, अपितु सचमुच ही उसने दृष्टि के विषय में से उस समय गुरुजी को भी पृथक् कर ही दिया था। लक्ष्यभेद का यही एक उपाय है। अर्जुन का कृत्य गुरु की उपेक्षा नहीं, सर्वाधिक सम्मान था; क्योंकि उसने सच्चे अर्थों में गुरुजी की आज्ञा का पालन किया था। जब लौकिक कार्य की सिद्धि में भी, लक्ष्यभेद में भी गुरु को दृष्टि में से निकालना अनिवार्य हो जाता है तो फिर आत्मसिद्धि जैसे महानकार्य में गुरुदेव को दृष्टि के विषय में कैसे रखा जा सकता है? गुरुदेव के बताये मार्ग पर चलकर उस लक्ष्य की प्राप्ति करना कि जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये गुरुदेव ने निर्देश दिया है, मार्ग बताया है ; सद्गुरु का सच्चा सम्मान है, इसमें उनकी उपेक्षा तो रंचमात्र ही नहीं है। कोई गुरु नहीं चाहता कि उसका शिष्य निरन्तर उसका ही मुंह ताकता रहे या उसकी ही स्तुति गान में लगा रहे और जिस भगवान आत्मा का स्वरूप उसे समझाया गया है, उसकी आराधना में तत्पर ही न हो। सच्चे शिष्य के हृदय में भी गुरु का समुचित स्थान और सम्मान तो सदा रहता ही है और समय-समय पर वह अभिव्यक्त भी होता ही रहता है; पर अनुभव के काल में तो वे ज्ञान के भी ज्ञेय नहीं रहते - यह भी परमसत्य है। इस बात को भी हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। लक्ष्यभेद के लिये सन्नद्ध होने के पूर्व भी वह गुरु का स्मरण कर सकता है, करता है; लक्ष्यभेद के बाद भी कर सकता, करता है; पर लक्ष्यभेद के काल में कदापि नहीं। इसीप्रकार आत्मानुभूति के लिये सन्नद्ध होने के पूर्व एवं आत्मानुभूति के बाद शुभोपयोग में आने पर गुरु का स्मरण सम्भव है, पर आत्मानुभूति के काल में तो कदापि नहीं।
SR No.009462
Book TitleNimittopadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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