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निमित्तोपादान (१५) प्रश्न : गुरु का स्मरण आगे-पीछे ही क्यों, अनुभूति के काल में क्यों नहीं ? आखिर निमित्त की यह उपेक्षा क्यों ?
उत्तर : सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का कार्य तो अपने में ही होना है, उपादान में ही होना है; गुरु में नहीं, निमित्त में नहीं; अपने आश्रय से ही होना है, गुरु के आश्रय से नहीं। गुरु तो मार्गदर्शक मात्र हैं, निमित्त मात्र हैं। न उनमें कुछ होना है न उनसे कुछ होना है ; जो कुछ होना है, अपने में ही होना है अपने से ही होना है, अपने आश्रय से ही होना है। उन्हें तो जो कुछ बताना था, समझाना था; बता दिया, समझा दिया और आपने समझ लिया। अब आप अपना कार्य करिये, गुरुजी को क्यों अपने साथ रखना चाहते हैं, उपयोग में भी क्यों रखना चाहते हैं?
बारीकी से विचार करें तो क्षयोपशमज्ञान वालों के एक समय में एक ही वस्तु उपयोग में रहती है। अत: जबतक गुरुजी भी उपयोग में रहेंगे, ज्ञान का ज्ञेय बने रहेंगे; तबतक दृष्टि का विषय भगवान आत्मा ज्ञान का ज्ञेय नहीं बनेगा। जबतक त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा ज्ञान का ज्ञेय नहीं बनेगा, ध्यान का ध्येय नहीं बनेगा, श्रद्धान का श्रद्धेय नहीं बनेगा; तबतक आत्मानुभूति होनेवाली नहीं है, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होनेवाली नहीं है; संवर होनेवाला नहीं है, धर्म का प्रारम्भ होनेवाला नहीं है। ___ धर्म के आरम्भ करने की विधि ही यह है कि पहले गुरुपदेशपूर्वक विकल्पात्मक क्षयोपशमज्ञान में निजशुद्धात्मतत्व का स्वरूप समझे, सम्यक् निर्णय करे; उसके उपरान्त गुरु आदि समस्त परपदार्थों से उपयोग हटाकर उपयोग को आत्मसन्मुख करे और आत्मा में ही तन्मय हो जावे। यह आत्मतन्मयता ही आत्मानुभूति का उपाय है, आत्मानुभूति है; यही धर्म का आरम्भ है, यही संवर है। निरन्तर वृद्धिंगत यह आत्मस्थिरता ही निर्जरा है और अनन्तकाल तक के लिये आत्मा में ही समा जाना ही वास्तविक मोक्ष है, जो अनन्तसुखस्वरूप है और प्राप्त करने के लिये एकमात्र परम-उपादेय है।
(१६) प्रश्न : अनुभूति के काल में न सही, पर आगे-पीछे तो बारम्बार गुरु के नाम का उल्लेख करना ही चाहिये न। पर आप पर यह