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निमित्तोपादान
वस्तुत: बात यह है कि जब करणलब्धि के उपरान्त सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है; तब ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र आदि सभी गुणों की परिणति आत्मसन्मुख होती है; उस समय त्रिकाली निज भगवान आत्मा ही ज्ञान का ज्ञेय होता है, श्रद्धान का श्रद्धेय होता है; ध्यान का ध्येय होता है ।
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जिसप्रकार अनुभूति के काल में सभी गुणों की परिणति आत्मसन्मुख होती है, उसीप्रकार सभी गुणों की परिणति में निर्मलता भी प्रगट होती है; इसीकारण कहा जाता है कि "सर्व गुणांश समकित "। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन आत्मा के सम्पूर्ण गुणों के अंशों में स्फुरायमान होता है। ज्ञानगुण की परिणति सम्यग्ज्ञानरूप हो जाती है, श्रद्धागुण की परिणति सम्यग्दर्शनरूप हो जाती है; चारित्रगुण की परिणति सम्यक्चारित्ररूप हो जाती है। आनन्द (सुख) गुण में भी अतीन्द्रिय आनन्द उमड़ पड़ता है। आखिर अनन्तगुणों का अखण्डपिण्ड सम्पूर्ण आत्मा ही सम्यग्दृष्टि होता है न ?
(१४) प्रश्न : यह तो ठीक, पर जिस सत्पुरुष ने हमें सुखी होने का मार्ग बताया, सम्यग्दर्शन प्राप्ति का उपाय बताया; उसी की यह उपेक्षा तो ठीक नहीं, उसे भी दृष्टि से ओझल कर देना क्या कृतघ्नता नहीं है ?
उत्तर : नहीं, यह कृतघ्नता नहीं है, अपितु सच्ची कृतज्ञता है; क्योंकि वह सत्पुरुष भी तो यही चाहता है कि तुम दृष्टि को सम्पूर्ण जगत से हटाकर स्वभावसन्मुख करो। अतः यह तो उसी की आज्ञा का पालन हुआ । तुम्हीं बताओ कि गुरुजी का आज्ञा का पालन करनेवाला शिष्य कृतघ्नी होता है या कृतज्ञ ? गुरु द्रोणाचार्य जब अपने शिष्यों की परीक्षा ले रहे थे, तब वृक्ष की टहनी पर स्थित कृत्रिम चिड़िया की आँख को भेदन करने का आदेश देते हुए उन्होंने अपने सभी शिष्यों से यही एक सवाल किया था कि तुम्हें क्या दिख रहा है अर्थात् तुम्हारी दृष्टि में क्या है ?
जिन लोगों ने यह उत्तर दिया कि हमें सब दिखाई दे रहा है - वृक्ष, डाली, चिड़िया, उसकी आँख और गुरुजी आप भी । गुरुजी ने उन सभी को बिना बाण चलाये ही नापास कर दिया और अर्जुन के कहने पर कि सिर्फ चिड़िया की आँख और कुछ नहीं ।