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________________ 37 कुछ प्रश्नोत्तर की शोध की ओर पुरुषार्थ को प्रेरित करती है। सत्पुरुष के समागम से आत्मरुचि को अभूतपूर्व बल प्राप्त होता है; अध्ययन, मनन, चिन्तन की प्रक्रिया पर से विमुख हो स्वोन्मुख हो जाती है। रुचि की तीव्रता और पुरुषार्थ की प्रबलता दृष्टि को स्वभावसन्मुख तो करती ही है, ज्ञान व ध्यानपर्याय को भी आत्मोन्मुख करती है और यह निमित्त-उपादान का सहज सुमेल देशनालब्धि से करणलब्धि की ओर ढलता हुआ सम्यग्दर्शन पर्याय प्राप्त करने की सशक्त भूमिका तैयार कर देता है। यह सबकुछ सहज ही होता है; इसीलिये कहा गया है कि आत्मार्थी को निमित्तों की खोज में व्यग्र नहीं होना चाहिये। ___ क्षयोपशम और विशुद्धिलब्धि धारक पुरुष को सन्मार्ग की प्राप्ति का विकल्प तो होता ही है, तदर्थ शोध-खोज का होना भी स्वाभाविक ही है। इसी प्रक्रिया में सत्पुरुष की शोध-खोज भी होती है, काललब्धि के अनुसार उपलब्धि भी होती ही है। सद्गुरु की उपलब्धि और उसके उपदेश की प्राप्ति के उपरान्त भी जबतक करणलब्धि के परिणामों की पात्रता नहीं पकती; तबतक अध्ययन, मनन, चिन्तन की प्रक्रिया निरन्तर चलती ही रहती है। यह काल अन्तर्मुहूर्त भी हो सकता है और अधिक भी हो सकता है; पर यह सबकुछ बिना तनाव के अत्यन्त सहजभाव से चलता रहता है और सहजभाव से ही चलते रहना चाहिये; क्योंकि मुक्ति का मार्ग शान्ति का मार्ग है, तनाव का नहीं, व्यग्रता का नहीं। (१३) प्रश्न : जब कार्य की उत्पत्ति में पंच समवायों का सहज सुमेल होता है, निमित्त-उपादान का भी सहज सुमेल होता है; तब फिर ऐसा क्यों कहा जाता है कि निमित्ताधीन दृष्टि छोड़ो, त्रिकाली उपादानरूप निजभगवान आत्मा का आश्रय लो? उत्तर : निमित्त 'पर' है, उस पर दृष्टि रखने से दृष्टि पराधीन होती है। त्रिकाली उपादानरूप निज भगवान आत्मा 'स्व' है, उस पर दृष्टि रखने से दृष्टि स्वाधीन होती है। पराधीनता ही दुःख है और स्वाधीनता ही सुख है; अतः सुखार्थी को तो स्वाधीनता ही श्रेयस्कर है।
SR No.009462
Book TitleNimittopadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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