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निमित्तोपादान
इसप्रकार सम्यग्दर्शनरूप कार्य में मिथ्यात्व कर्म के उदय का अभाव अन्तरंग निमित्त है और सत्पुरुष का उपदेश बहिरंग निमित्त है।
(१२) प्रश्न : जब सम्यग्दर्शन के पूर्व देशनालब्धि भी होती ही है और उसमें निमित्त सत्पुरुष का उपदेश ही होता है तो फिर सत्पुरुष की खोज तो करनी होगी, सत्पुरुष की पहिचान भी करनी हो होगी; फिर आप ऐसा क्यों कहते हैं कि आत्मार्थी को निमित्तों की खोज में व्यग्र नहीं होना चाहिये ?
उत्तर : हाँ, सत्पुरुष की पहिचान तो करना ही चाहिये। बिना सच्ची पहिचान के तो पग-पग पर ठगाये जाने की सम्भावना बनी रहती है। इसीकारण सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा है; क्योंकि सच्चे देवशास्त्र-गुरु की पहिचान बिना तो सन्मार्ग पर लगना ही सम्भव नहीं है। ___ आत्मार्थी भाई-बहिन ज्ञानी सत्पुरुषों की खोज भी सहजभाव से करते ही हैं। न तो सत्पुरुषों की पहिचान का ही निषेध है और न खोज का ही; पर खोज में व्यग्र होने का निषेध तो है ही। व्यग्रता को तो किसी भी रूप में ठीक नहीं माना जा सकता है।
वस्तुत: बात यह है कि उपादान और निमित्त का एक सुमेल होता है। जब उपादान की तैयारी होती है अर्थात् पर्याय की पात्रता पकती है; तब सत्पुरुष का समागम भी सहज ही प्राप्त होता है, सत्पुरुष की खोज भी सहज ही सफल होती है; कुछ भी असहज नहीं होता, सबकुछ सहज ही होता है।
त्रिकाली सत् की रुचि में सत्पुरुष की खोज की प्रक्रिया सहज ही सम्पन्न होती है, व्यग्रता से कुछ नहीं होता। आत्महित का मार्ग तो सहज का धंधा है। सत्पुरुष की शोध भी सहज और त्रिकाली ध्रुव की अनुभूति-प्रतीति भी सहज; सबकुछ सहज ही सहज है।
जब संसार-सागर का किनारा निकट आ जाता है, तब सहज ही आत्मा की रुचि जागृत होती है। आत्मरुचि भगवान आत्मा और आत्मज्ञ सत्पुरुष