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एक अनुशीलन
"परद्रव्य कोई जबरन तो बिगाड़ता नहीं है, अपने भाव बिगड़ें तब वह भी बाह्यनिमित्त है। तथा इसके निमित्त बिना भी भाव बिगड़ते हैं, इसलिये नियमरूप से निमित्त भी नहीं है।
इसप्रकार परद्रव्य का तो दोष देखना मिथ्याभाव है ।"
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न तो निमित्त उपादान में बलात् कुछ करता है और न ही उपादान किन्हीं निमित्तों को बलात् लाता या मिलाता है। दोनों का सहज ही सम्बन्ध होता है । निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध की सहजता को पण्डित टोडरमलजी ने इसप्रकार स्पष्ट किया है -
" यदि कर्म स्वयं कर्ता होकर उद्यम से जीव के स्वभाव का घात करे, बाह्यसामग्री को मिलावे; तब तो कर्म के चेतनपना भी चाहिये और बलवानपना भी चाहिये; सो तो है नहीं, सहज ही निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है। जब उन कर्मों का उदयकाल हो, उस काल में स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है तथा जो अन्य द्रव्य हैं, वे वैसे ही सम्बन्धरूप होकर परिणमित होते हैं ।
जिसप्रकार सूर्य के उदय के काल में चकवा-चकवियों का संयोग होता है; वहाँ रात्रि में किसी ने द्वेषबुद्धि से बलजबरी करके अलग नहीं किये हैं । दिन में किसी ने करुणाबुद्धि से लाकर मिलाये नहीं हैं, सूर्यास्त का निमित्त पाकर वे स्वयं ही बिछुड़ते हैं और सूर्योदय का निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं। ऐसा ही निमित्त - नैमित्तिक बन रहा है । उसीप्रकार कर्म का भी निमित्तनैमित्तिक भाव जानना । "
निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध एक सहज सम्बन्ध है, उसे कर्ता - कर्म सम्बन्ध के रूप में प्रस्तुत करना उपयुक्त नहीं है । पर के साथ कारकता के सम्बन्ध का निषेध करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं -
१. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ २४४
२. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ २५