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निमित्तोपादान
इसीप्रकार एक ही समोशरण में एक साथ अनेक जीव धर्मोपदेश सुनते हैं; परन्तु सभी सम्यग्दृष्टि, व्रती या साधु तो नहीं हो जाते; सब अपनी-अपनी पर्यायगत योग्यतानुसार ही परिणमते हैं।
अतः यह सुनिश्चित ही है कि कार्य के प्रति नियामक कारण तो अपनीअपनी पर्यायगत योग्यता ही है।
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जरा विचार तो कीजिये कि भगवान महावीर के जीव का हित मारीचि के भव में ही क्यों नहीं हो गया ? क्या वहाँ सनिमित्तों की कमी थी ? पिता चक्रवर्ती भरत, धर्मचक्र के आदि प्रवर्त्तक भगवान ऋषभदेव बाबा । भगवान ऋषभदेव के समवशरण में उनका उपदेश सुनकर तो उसने विरोधभाव उत्पन्न किया था। क्या उनके उपदेश में कोई कमी थी ? क्या चारणऋद्धिधारी मुनियों का उपदेश उनसे भी अच्छा था ?
इसी से सिद्ध होता है कि जब पर्यायगत उपादान की तैयारी हो, तब कार्य होता है और उस समय योग्य निमित्त भी होता ही है, उसे खोजने नहीं जाना पड़ता है।
क्रूर शेर की पर्याय में घोर वन में उपदेश का कहाँ अवसर था ? पर उसका पुरुषार्थ जगा तो निमित्त आकाश से उतर कर आये। इसीलिये तो कहा जाता है कि आत्मार्थी को निमित्तों की खोज में व्यग्र नहीं होना चाहिये । 'निमित्त नहीं होता' - यह कौन कहता है? पर निमित्तों को खोजना भी नहीं पड़ता है। जब उपादान में कार्य होता है तो तदनुकूल निमित्त होता ही है ।
निमित्तों के अनुसार कार्य नहीं होता है, कार्य के अनुसार निमित्त कहा जाता है। वेश्या के मृत शरीर को देखकर रागी को राग और वैरागी को वैराग्य उत्पन्न होता है और वह वेश्या रागी के राग और वैरागी के वैराग्य का निमित्त कही जाती है। यदि निमित्त के अनुसार कार्य होता हो तो उसे देखकर प्रत्येक को या तो राग ही उत्पन्न होना चाहिये या फिर वैराग्य ही ।
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी कहते हैं -
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