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________________ निमित्तोपादान " अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति यतः शुद्धात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतंत्रैर्भूयते । " इसलिये निश्चय से पर के साथ आत्मा के कारकता का कोई सम्बन्ध नहीं है; तथापि शुद्धात्मलाभ की प्राप्ति के लिये जीव न मालूम क्यों व्यग्रता से परतंत्र होते हैं ।" 18 इसी बात को स्पष्ट करते हुए इसी गाथा के भावार्थ में लिखा गया है " उपरोक्त प्रकार से द्रव्य स्वयं ही अपनी अनन्तशक्तिरूप सम्पदा से परिपूर्ण है, इसलिये स्वयं ही छहकारकरूप होकर अपना कार्य करने के लिये समर्थ है, उसे बाह्यसामग्री कोई सहायता नहीं कर सकती। इसलिये केवलज्ञान के इच्छुक आत्मा को बाह्यसामग्री की अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरथर्क है ! " स्वभाव भावों में तो पर का कर्तृत्त्व है ही नहीं, विभाव भावों में भी पर के कर्तृत्त्व का निषेध किया गया है। पंचास्तिकायसंग्रह गाथा ६२ की आचार्य अमृतचन्द्रकृत समयव्याख्या नामक टीका में इस बात को अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है। टीका के भाव को स्पष्ट करते हुए भावार्थ में लिखा गया मूल कथन इसप्रकार है - " इसप्रकार पुद्गल की कर्मोदयादिरूप से या कर्मबन्धादिरूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में पुद्गल ही स्वयमेव छहकारकरूप से वर्तता है; इसलिये उसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं है तथा जीव की औदयिकादि भावरूप से परिणमित होने की क्रिया में वास्तव में जीव स्वयं ही छहकारकरूप से वर्तता है; इसलिये उसे अन्य कारकों की अपेक्षा नहीं है। पुद्गल की और जीव की उपरोक्त क्रियायें एक ही काल में वर्तती हैं; तथापि पौद्गलिक क्रिया में वर्तते हुए पुद्गल के छहकारक जीवकारकों से बिल्कुल भिन्न और निरपेक्ष हैं तथा जीवभावरूप क्रिया में वर्तते हुए जीव के छहकारक पुद्गलकारकों से बिल्कुल भिन्न और निरपेक्ष हैं। १. प्रवचनसार गाथा १६ की तत्त्वप्रदीपिका टीका, पृष्ठ २७-२८
SR No.009462
Book TitleNimittopadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages57
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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