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निमित्तोपादान
उपादानकारण
(२)
त्रिकाली उपादान
क्षणिक उपादान (१) अनन्तरपूर्वक्षणवर्तीपर्याय तत्समय की योग्यता
(३) क्षणिक उपादानकारण को समर्थ उपादानकारण भी कहते हैं, क्योंकि त्रिकाली उपादानकारण तो सदा विद्यमान रहता है; यदि उसे ही पूर्ण समर्थ कारण मान लिया जाय तो विवक्षित कार्य की सदा उत्पत्ति होते रहने का प्रसंग आयेगा। अनन्तरपूर्वक्षणवर्तीपर्याय का व्यय एवं उस समय उस पर्याय के उत्पन्न होने की योग्यता ही समर्थ उपादानकारण हैं, जिनके बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती और जिनके होने पर नियम से कार्य की उत्पत्ति होती है।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में उपादान के दो भेद किये गये हैं - एक असमर्थ उपादान और दूसरा समर्थ उपादान। उनमें जो समर्थ उपादान है, वह अवश्य ही कार्य का जनक होता है और वह अष्टसहस्री के अभिप्रायानुसार अव्यवहित पूर्वपर्याययुक्तद्रव्यरूप ही होता है। - इसप्रकार इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि समर्थ उपादान एक ही होता है और उससे उत्पन्न होनेवाला कार्य वही होता है, जिसका वह समर्थ उपादान होता है। वहाँ उस कार्य का जो भी निमित्त होता है, उसमें उपादान की क्रिया करने की शक्ति ही नहीं होती। मात्र वह उपादान के अनुसार होनेवाला कार्य का सूचक होने से उसका निमित्त कहलाता है। और इसी आधार पर निमित्त के अनुसार कार्य होता है, ऐसा व्यवहार (उपचार) किया जाता है।"
१. जैनतत्त्व समीक्षा का समाधान, पृष्ठ १५ २. वही, पृष्ठ १५