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________________ ३० अध्यात्म के नय वाले नय को अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनय कहते हैं। ' जैसे जीव के केवलज्ञानादि गुण हैं । केवलज्ञानादि शुद्धगुणों का आधार होने के कारण कार्यशुद्ध जीव कहा जाता है। यह नय पूर्ण विकसित निर्मल पर्यायों को आत्मा का कहता है, इसलिए शुद्ध गुणों का आधारभूत होने से इसे शुद्ध सद्भूतव्यवहारनय कहते हैं। जैसे जीव में केवलज्ञानादि गुण । यह नय आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र के भेद करता है। जैसे- जीव ज्ञानवान है अथवा ज्ञान जीव का गुण है। यद्यपि जीव और ज्ञान भिन्नभिन्न नहीं हैं, एक ही हैं; तदपि उनमें भेद देखना इस नय का विषय है। संक्षेप में कह सकते हैं कि यह नय द्रव्य की पूर्ण निर्विकारी शुद्ध गुण या शुद्ध पर्याय को विषय बनाता है। जैसे- पुद्गल की परमाणु पर्याय को और जीव की केवलज्ञानादि पर्याय को । कर्त्ता - भोक्ता - इस नय के अनुसार आत्मा निर्मल पर्यायों का ज्ञाता, कर्त्ता भोक्ता है। नाम की सार्थकता - अनन्तगुण और अनन्तप्रदेश आत्मा में हैं, अतः सद्भूत हैं। आत्मा के गुण व प्रदेश अलग-अलग नहीं हो सकते, अतः 'अनुपचरित' हैं। इन गुण और प्रदेशों को भेद करके समझाया जाता है, अतः ये 'व्यवहार' हैं; तथा एक देश का कथन करने के कारण 'नय' हैं। अतः इसका अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनय नाम सार्थक है। प्रयोजन - स्वभाव की सामर्थ्य का ज्ञान कराना तथा आत्मा में अनुपचरित रूप से विद्यमान शक्तियों और पूर्ण पावन व्यक्तियों का परिचय कराना इस नय का प्रयोजन है। १. आलापपद्धति, पृ. २२८ २. नियमसार गाथा ९ की तात्पर्यवृत्ति टीका ३. (अ) प्रवचनसार, जयसेनाचार्यकृत टीका का परिशिष्ट (ब) नियमसार गाथा ९ की तात्पर्यवृत्ति टीका 18 अनुपपचरितसद्भूतव्यवहारनय ३१ हेयोपादेयता - यह नय अपने शुद्ध स्वरूप को समझने के लिए उपयोगी है, अतः उपादेय है तथा जब तक भिन्नता पर लक्ष्य रहता है, ज्ञान भेद के विकल्पों में उलझता है; तब तक भेद में ही उलझे रहने से ज्ञान में विकल्प की तरंगें उठती हैं, जिससे अखण्ड आत्मा की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए आत्मानुभूति नहीं होती। अतः यह नय हेय है । इसप्रकार हम देखते हैं कि चारों ही व्यवहारनय अपनी-अपनी सीमा में भिन्न-भिन्न वस्तुओं में अभेद का उपचार करते हैं या अभेद अखण्ड वस्तु में भेद करते हैं। व्यवहारनय की भाषा अज्ञानियों की भाषा है और भाव ज्ञानियों का। दुनिया जैसा मानती है वैसा ही इनमें बताया गया है। दुनिया का व्यवहार इसी प्रकार चलता है। यह नय दुनिया का प्रतिनिधित्व करने वाले नय हैं। सम्पूर्ण प्रथमानुयोग और चरणानुयोग की आधारशिला यही है। भेद-विज्ञान, दैनिक व्यवहार और सदाचार की दृष्टि से भी यह नय अत्यन्त उपयोगी हैं। व्यवहारनय की विषयवस्तु का प्रतिपादन तो व्यवहारनय करता ही है, साथ ही साथ निश्चयनय की विषयवस्तु का प्रतिपादन भी व्यवहारनय ही करता है। व्यवहारनय को माने बिना समझने-समझाने की प्रक्रिया का लोप हो जाएगा, तीर्थ का लोप हो जाएगा। आत्मा को वाणी के माध्यम से, गुरु के माध्यम से समझने के लिए व्यवहार की जरूरत है और आत्मा के अनुभव के लिए व्यवहार का निषेध आवश्यक है। व्यवहार बिना आत्मा समझ में नहीं आता तथा व्यवहार छोड़े बिना आत्मा प्राप्त नहीं होता । अतः व्यवहारनय के कथन प्रयोजनपुरतः सत्य हैं, व्यावहारिक सत्य हैं; पारमार्थिक सत्य नहीं । अतः व्यवहारनय अपनी सीमा में सर्वथा सत्यार्थ है और सीमा के बाहर सर्वथा असत्यार्थ ।
SR No.009461
Book TitleNaychakra Guide
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuddhatmaprabha Tadaiya
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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