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________________ अध्यात्म के नय प्रयोजन - यह नय अखण्ड द्रव्य के बीच भेद डालकर समझनेसमझाने का कार्य करता है तथा भेद और विकार का ज्ञान भी कराता है। हेयोपादेयता - समझने-समझाने में उपयोगी होने के कारण उपादेय है और द्रव्य की एकता को खण्डित करने के कारण हेय है। भेद - शुद्धता और अशुद्धता को विषय बनाने के आधार पर यह नय भी दो प्रकार का होता है - २८ (i) उपचरित सद्भूतव्यवहारनय। (अशुद्ध सद्भूतव्यवहारनय) (ii ) अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनय । (शुद्ध सद्भूतव्यवहारनय) (i) उपचरित सद्भूतव्यवहारनय स्वरूप और विषयवस्तु - अखण्ड द्रव्य में अशुद्ध गुण-गुणी, पर्याय- पर्यायी के आधार पर भेद को विषय बनाने वाले नय को उपचरित सद्भूतव्यवहारनय कहते हैं।' अथवा सोपाधि गुण-गुणी में भेद को विषय करने वाला नय को उपचरितसद्भूतव्यवहार कहते हैं। जैसे - जीव के मतिज्ञानादि गुण हैं। मतिज्ञानादि विभाव गुणों का आधार होने के कारण अशुद्ध जीव कहा जाता है। यह अल्पविकसित और विकारी पर्यायों को आत्मा की कहता है, इसलिए अशुद्ध गुणों का आधारभूत होने से इसे अशुद्धसद्भूत - व्यवहारनय' भी कहते हैं। जैसे- मैं राग-द्वेषादि वाला हूँ । संक्षेप में कह सकते हैं कि यह नय हमारे अंदर वर्तमान में विद्यमान रागादि विकारों और मतिज्ञानादि अपूर्ण पर्यायों का ज्ञान कराता है। इसप्रकार यह नय एक द्रव्य में भेद डालता है, अपने में भेद करता है। १. आलापपद्धति, पृष्ठ- २१७ २. वही, पृष्ठ- २२८ ३. ( अ ) नियमसार, गाथा ९ की तात्पर्यवृत्ति टीका । (ब) प्रवचनसार, जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति का परिशिष्ट ४. छद्यस्थ जीव के अपरिपूर्ण ज्ञान दर्शन की अपेक्षा से 'अशुद्धसद्भूत' शब्द से वाक्य उपचरित सद्भूतव्यवहारनय है। वृहद्रव्य संग्रह, गाथा ६ की संस्कृत व्याख्या । 17 उपचरितसद्भूतव्यवहारनय २९ कर्त्ता-भोक्तापन - आत्मा मोह राग-द्वेषादि विकारी भावों का कर्त्ता व उनके फल का भोक्ता है। नाम की सार्थकता - मोह-राग-द्वेषादि भाव हमारी आत्मा में ही उत्पन्न होने के कारण 'सद्भूत' हैं तथा आत्मा को दुःख देने वाले हैं, दूर के हैं, अविकसित और विकारी पर्यायें हैं, अतः 'उपचरित' हैं । दुनिया में उन्हें अपना कहा जाता है, इसलिए 'व्यवहार' है। अंश का कथन करने के कारण 'नय' हैं अथः इसका उपचरित सद्भूतव्यवहारनय नाम सार्थक है। प्रयोजन - वर्तमान पर्याय की पामरता का ज्ञान कराकर उससे मुक्त होने की प्रेरणा देना ही इस नय का प्रयोजन है। हेयोपादेयता - अपनी भूलों का प्रतिपादन करने वाला यह नय हमें सिखाता है कि हम अपनी भूलों को स्वीकार कर उसकी पुनरावृत्ति न करें तथा यह नय वर्तमान पर्याय की पामरता का ज्ञान कराकर उससे मुक्त होने की प्रेरणा भी देता है; अतः यह नय कथंचित् उपादेय है। मोहादि परिणाम आत्मा की सुख-शांति का घात करने वाले हैं, इसलिए इन्हें आत्मा नहीं माना जा सकता, अतः इन्हें आत्मा कहने वाला नय कथंचित हेय है। (ii) अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनय स्वरूप और विषयवस्तु - अखण्ड द्रव्य में शुद्ध गुण-गुणी, पर्याय- पर्यायी के आधार पर भेद को विषय करने वाले नय को अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनय कहते हैं।' जीव केवलज्ञान-दर्शन वाला है। यह द्रव्य सामान्य में शुद्ध गुण-गुणी का भेद कथन है और जीव ‘वीतरागता वाला है' - यह द्रव्य सामान्य में शुद्ध पर्याय-पर्यायी का भेद कथन है। अथवा निरुपाधि गुण-गुणी में भेद को विषय करने १. आलापपद्धति, पृ. २१७ २. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ १४१
SR No.009461
Book TitleNaychakra Guide
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuddhatmaprabha Tadaiya
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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