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णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन
यह तो आप जानते ही हैं कि भारतीय संस्कृति में मांगने को सर्वाधिक बुरा बताया गया है। कहा भी गया है कि -
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रहिमन वे नर मर गये जो नर मांगन जाँय । उनसे पहले वे मरे जिन-मुख निकसत नाँहि ॥
उक्त छन्द में मांगनेवालों को मरे हुए के समान बताया गया है। कहा गया है कि जो किसी के दरवाजे पर मांगने जाते हैं, समझ लो वे लोग मर ही गए हैं; क्योंकि मांगना स्वाभिमान खोये बिना सम्भव नहीं है और जिनका स्वाभिमान समाप्त हो गया है, वे जिन्दा होकर भी मृतक समान ही हैं।
इसमें एक बात और भी कही गई है कि मांगनेवाले तो मृतक समान हैं ही, पर मांगने पर मना करनेवाले तो उनसे भी गये बीते हैं। उन्हें तो मांगनेवालों से भी पहले गर गया समझो।
मांगने पर तो विष्णु भगवान को भी बाबनिया बनना पड़ा था, फिर औरों की तो बात ही क्या है ? ऐसी भारतीय संस्कृति में कि जिसमें मांगने को इतना हीन समझा गया हो; उसमें, जिसमें कुछ मांग प्रस्तुत न की गई हो, वह मंत्र महामंत्र बन गया तो आश्चर्य की क्या बात है ?
कुछ लोग कहते हैं कि णमोकार महामंत्र में बड़ी ही उदारता से लोक के सभी साधुओं को नमस्कार किया गया है । उदारता की व्याख्या करते हुए वे यह कहने से भी नहीं चूकते हैं कि जैन साधु और जैनेतर साधुओं को इसमें बिना भेदभाव किए समानरूप से नमस्कार किया गया है।
क्या ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' का सचमुच यही भाव है? या फिर जैनेतरों को प्रसन्न करने के लिए यह कह दिया जाता है ?
यद्यपि यह बात सत्य है कि इसमें किसी साधु विशेष का नाम लेकर नमस्कार नहीं किया गया है, किसी सम्प्रदाय विशेष का भी नाम नहीं लिया गया है, किसी धर्म का भी नाम नहीं लिया गया है; तथापि इसमें वे साधुगण ही आते हैं, जो पंच परमेष्ठी में शामिल हैं, अट्ठाईस मूलगुणों के धारी हैं; जो जैन परिभाषा के अनुसार छठवें - सातवें गुणस्थान की भूमिका में झूलनेवाले हैं