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एकता की अपील
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लेते हैं तो वह गंगा का जल, गंगा का जलन रहकर ब्राह्मण का जल, क्षत्रिय काजल, शूद्र का जल हो जाता है।
यदि एक जाति वाले के घड़े को दूसरी जातिवाला छूले तो लोग उस जल को अपवित्र मानने लगते हैं। कहते हैं - तूने मेरा पानी क्यों छू लिया ? वही गंगा का जल जो सबको पवित्र करता था, घड़ों में भर जाने से स्वयं अछूत हो गया। उसकी दूसरों को पवित्र करने की शक्ति तो समाप्त हो ही गई, वह स्वयं भी दूसरे के छू लेने मात्र से अपवित्र होने लगा ।
इसीप्रकार सबको पावन कर देनेवाला यह जिनवाणी रूपी गंगा का जल जब सम्प्रदायों के घड़ों में भर जाता है तो उसमें वह क्षमता नहीं रहती कि दूसरों के चित्त को शान्त कर दे, अपितु साम्प्रदायिक उपद्रवों का कारण बनने लगता है; अतः यही श्रेष्ठ है कि गंगाजल गंगा में ही रहे, उसे घड़ों में बन्द न किया जाय ।
गंगा के ही किनारे रखे गंगाजल से भरे घड़े छुआछूत पैदा करते हैं तो क्या उपाय है इस बुराई से बचने का ?
भाई, एक ही उपाय है कि उन घड़ों को फोड़ दिया जाय; क्योंकि पानी. में तो कोई दोष है नहीं, वह तो वैसा का वैसा ही निर्मल है; दोष तो घड़ों में है। घड़ों के फूटने पर गंगा का पानी गंगा में ही मिल जायगा; गंगा में मिलते ही वह वही पावनता प्राप्त कर लेगा, पावन करने की शक्ति भी प्राप्त कर लेगा; जो उसमें घड़ों में कैद होने के पहले विद्यमान थी ।
इसीप्रकार सम्प्रदायों में विभक्त जैनत्व, जो आज साम्प्रदायिक सड़ांध पैदा कर रहा है, कलह का कारण बन रहा है; यदि वह उन्मुक्त हो जावे तो अपनी पावनता को तो सहज उपलब्ध कर ही लेगा, अपनी पवित्रता की शक्ति से जैन समाज को ही नहीं, सम्पूर्ण दुनिया को प्रकाशित कर देगा, सुख-शान्ति का मार्ग प्रशस्त कर देगा।
हमने अपने ही अज्ञान से बहुत-सी दीवालें खड़ी कर ली हैं। सम्प्रदायों