________________
अपनी खोज
९७
"परद्रव्य से हो दुर्गति निज द्रव्य से होती सुगति। यह जानकर रति करो निज में अर करो पर से विरति॥"
अपनी माँ को खोजने की जिसप्रकार की धुन-लगन उस बालक को थी, आत्मा की खोज की उसीप्रकार की धुन-लगन आत्मार्थी को होना चाहिए। आत्मार्थी की दृष्टि में स्वद्रव्य अर्थात् निज भगवान आत्मा ही सदा ऊर्ध्वरूप से वर्तना चाहिए। गहरी और सच्ची लगन के बिना जगत में कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता, तब फिर आत्मोपलब्धि भी गहरी और सच्ची लगन के बिना कैसे संभव है?
सभी आत्मार्थी भाई परद्रव्य से विरक्त हो स्वद्रव्य की आराधना कर आत्मोपलब्धि करें और अनन्त सुखी हों- इसी मंगल भावना से विराम लेता हूँ।
१. आचार्य कुन्दकुन्द : मोक्ष पाहुड गाथा १६
विश्वविख्यात समस्त दर्शनों में जैनदर्शन ही एक ऐसा दर्शन है, जो निज भगवान आत्मा की आराधना को धर्म कहता है; स्वयं के दर्शन को सम्यग्दर्शन, स्वयं के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान और स्वयं के ध्यान को सम्यक्चारित्र कहकर इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र को ही वास्तविक धर्म घोषित करता है। ईश्वर की गुलामी से भी मुक्त करनेवाला अनंत स्वतंत्रता का उद्घोषक यह दर्शन प्रत्येक आत्मा को सर्वप्रभुतासम्पन्न परमात्मा घोषित करता है और उस परमात्मा को प्राप्त करने का उपाय भी स्वावलम्बन को ही बताता है।
यद्यपि प्रत्येक आत्मा स्वभाव से स्वयं परमात्मा ही है; तथापि यह अपने परमात्मस्वभाव को भूलकर स्वयं पामर बन रहा है। पर्यायगत पामरता को समाप्त कर स्वभावगत प्रभुता को पर्याय में प्रगट करने का एकमात्र उपाय पर्याय में स्वभावगत प्रभुता की स्वीकृति ही है, अनुभूति ही है। स्वभावगत प्रभुता की पर्याय में स्वीकृति एवं स्वभावसन्मुख होकर पर्याय की स्वभाव में स्थिरता ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र है।
- बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-१७३