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नक्शों में दशकरण (जीव जीता-कर्म हारा)
बंधकरण
बंध के अनेक भेद ई. सं. १९४७ में प्रकाशित धवला पुस्तक ८ के विषय परिचय विभाग में आया हुआ निम्न अंश उपयोगी जानकर उसे आगे दिया है - ___“सान्तरबन्धी - एक समय बंधकर द्वितीय समय में जिनका बन्ध विश्रान्त हो जाता है। वे सान्तरबन्धी प्रकृतियाँ हैं; वे ३४ हैं - ___ असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, एकेन्द्रियादि ४ जाति, समचतुरस्त्रसंस्थान को छोड़ शेष ५ संस्थान, वज्रर्षभनाराच-संहनन को छोड़ शेष ५ संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयशकीर्ति ।
निरन्तरबन्धी - जो प्रकृतियाँ जघन्य से अन्तर्मुहूर्त काल तक निरन्तर रूप से बंधती हैं, वे निरन्तरबन्धी हैं। वे ५४ हैं -
ध्रुवबन्धी ४७, आयु ४, तीर्थंकर, आहारक शरीर और आहारकशरीरांगोपांग।
सान्तर-निरन्तरबन्धी - जो जघन्य से एक समय और उत्कर्षतः एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त के आगे भी बंधती रहती हैं वे सान्तरनिरन्तरबन्धी प्रकृतियाँ हैं। वे ३२ हैं -
सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ-शुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, नीचगोत्र और ऊँचगोत्र ।
सादिबन्ध - विवक्षित प्रकृति के बन्ध का एक बार व्युच्छेद हो "
जाने पर जो उपशमश्रेणी से भ्रष्ट हुए जीव के पुनः उसका बन्ध प्रारंभ हो जाता है, वह सादि बन्ध है। जैसे - उपशान्तकषाय गुणस्थान से भ्रष्ट होकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान को प्राप्त हुए जीव के ५ ज्ञानावरण का बन्ध।
अनादिबन्ध - विवक्षित कर्म के बन्ध के व्युच्छित्तिस्थान को नहीं प्राप्त हुए जीव के जो उसका बन्ध होता है वह अनादि बन्ध कहा जाता है। जैसे - अपने बन्धव्युच्छित्तिस्थान रूप सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय से नीचे सर्वत्र ५ ज्ञानावरण का बन्ध । __ ध्रुवबन्ध - अभव्य जीवों के जो ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का बन्ध होता है, वह अनादि-अनन्त होने से ध्रुवबन्ध कहलाता है।
ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ ४७ हैं - ५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और ५ अन्तराय । ____ अध्रुवबन्ध - भव्य जीवों के जो कर्मबन्ध होता है वह विनश्वर होने से अध्रुवबन्ध है। ___ अध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ - ध्रुवबन्धी प्रकृतियों से शेष ७३ प्रकृतियाँ अध्रुवबन्धी है।
इनमें ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकार तथा शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुवबन्ध ही होता है।"
वहाँ सबसे पहले पूरे प्रयत्न द्वारा सम्यग्दर्शन को भले प्रकार अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है ।।२१।। -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
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