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१ बंधकरण
• कर्म की विशिष्ट अवस्था को करण कहते हैं।
• कर्म की १० अवस्थाओं में बंधकरण प्रथम अवस्था है।
• संसारी जीव को कर्म का बंध अनादि से है ।
बंधकरण
● मनुष्य के शरीर पर जो गोले दिखाये हैं, उन्हें कर्म स्कन्ध समझना है ।
● चित्र में आस्रवपूर्वक कर्म का बंध दिखाया है।
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आयच
• कर्मबंध के काल में भी
आदि आत्मा स्वरूप से अबंध
/ मुक्त स्वभावी ही है।
सामादि
• आठों कर्मों में वेदनीय
कर्म को सबसे अधिक कर्म-परमाणु मिलते हैं।
• दर्शनमोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
की होती है।
मोहनीयादि
कर्म
अंतरि
• संसारी जीव प्रति समय
अनंत कर्म - परमाणुओं को बाँधता है।
गोद
• आयुकर्म का बंध, अप्रमत्तविरत नामक ७वें गुणस्थान तक ही होता है, आगे के गुणस्थानों में नहीं।
• अभेद विवक्षा में बंध योग्य प्रकृतियाँ १२० होती हैं।
• प्रकृति, आदि चारों प्रकार का बंध एकसाथ होता है। • सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्प्रकृति नामक कर्म का बंध नहीं होता ।
• अयोगकेवली को कोई/किसी भी कर्म का बंध नहीं होता ।
• तिर्यंच जीव को तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता ।
• कर्म का बंध होते ही वह कर्म, तत्काल फल नहीं दे सकता। आबाधाकाल बीतने के बाद ही कर्म, फल देता है।
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बन्धकरण
• जीव के मोह-राग-द्वेषरूप विकारी परिणामों के निमित्त से स्वयं परिणमित कार्मणवर्गणारूप पुद्गलस्कन्ध की विशिष्ट अवस्था को कर्म कहते हैं। कर्म के ज्ञानावरणादि आठ भेद हैं।
• जीव के मोह-राग-द्वेषरूप परिणामों का निमित्त पाकर कार्मण वर्गणाओं का आत्मप्रदेशों के साथ होनेवाले विशिष्ट (परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूप) संश्लेष संबंध को बंध कहते हैं।
• मोही जीव को ही कर्म का सतत बंध होता है।
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मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय परिणामों को मोह कहते हैं। • मात्र योग से केवल ईर्यापथास्रव होता है, जो एक समय का रहता है।
• कर्मबंध के चार भेद हैं- १. प्रकृतिबंध २. प्रदेशबंध ३. स्थितिबंध ४. अनुभागबंध
कर्म के स्वभाव को प्रकृतिबंध कहते हैं।
• कर्मरूप परिणमित पुद्गल - परमाणुओं की संख्या को प्रदेशबंध कहते हैं।
• कर्म की कालावधि के बंधन को स्थितिबंध कहते हैं।
• कर्म की फलदान शक्ति को अनुभागबंध कहते हैं ।
• योग से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होते हैं।
• मिथ्यात्वादि कषाय पर्यंत के भावों से स्थितिबंध और अनुभागबंध होते हैं।
• बँधावस्था में स्थित कर्म/सत्ता में स्थित कर्म जीव को फल नहीं देता ।
• अनुभाग बंध ही उदय-काल में फल देने का काम करता है।
• विपरीत मान्यता को मिथ्यात्व कहते हैं।
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हिंसादि पाँचों पापों में प्रवृत्ति को अविरति कहते हैं ।
क्रोधादि दुःखद विकारी परिणामों / भावों को कषाय कहते हैं।
आत्मप्रदेशों की चंचलता को योग कहते हैं।