________________
नक्शों में दशकरण (जीव जीता-कर्म हारा)
फलस्वरूप / कार्य इस निधत्तिरूप कर्म की सत्ता भी सहज ही सिद्ध हो जाती है।
२८
३. अब तीसरा करण है उदय उदय तो होगा ही; क्योंकि निधत्ति कर्म का उदय नियम से होता ही है; इस कारण से ही इस कर्म को फल देने में दृढ़तर कहा है।
४. उदीरणा करण का निषेध तो परिभाषा में ही किया है; इसलिए नित्ति कर्म की उदीरणा नहीं होगी।
५. उत्कर्षण एवं अपकर्षण ये दोनों करण निधत्तिरूप कर्म में होते हैं; क्योंकि परिभाषा में इनका निषेध नहीं किया है। उत्कर्षण और अपकर्षण - ये दोनों करण निकाचित में ही (निधत्ति में होते हैं ।) नहीं होते।
६. संक्रमणकरण का प्रतिषेध परिभाषा में किया है। अतः निधत्तिरूप कर्म में संक्रमण भी नहीं होगा।
७. उपशांतकरण होगा; क्योंकि निधत्तिरूप कर्म का बंध होने के बाद यह निधत्तिरूप कर्म कुछ काल पर्यंत जीव के साथ रहेगा ही। फिर प्रश्न हो सकता है कि किसी जीव का निधत्तिकर्म फल दिये बिना भी नष्ट हो सकता है क्या?
इसका उत्तर यह है कि जो जीव अपने विशेष पुरुषार्थ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करते हैं, उनके निधत्ति कर्मत्व का नाश होता है, अर्थात् उनका निधत्तिपना नष्ट होकर वे निधत्तिरूप कर्म, सामान्यकर्मरूप से परिणमित हो जाते हैं। (निकाचितकरण में भी निधत्तिकरण का खुलासा आया है।)
3. Kailashta Annanji Adhyatmik Duskaran Book (१५)
१०. निकाचितकरण
संक्रमण, उदीरणा, उत्कर्षण और अपकर्षण के लिए अयोग्य प्रकृतियों को निकाचितकरण कहते हैं।
← संक्रमण, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण - ये चारों करण निकाचित कर्म में नहीं होंगे।
पूर्वबद्ध
आठों
कर्म की
सत्ता
——— निकाचित कर्म में फल देने की मुख्यता रहती है। ← निकाचित कर्म का उदय होगा ही।
इसलिए निकाचित कर्म को दृढ़तम कहते हैं । ← निकाचित कर्म पुण्य-पाप दोनोंरूप होता है। निकाचित कर्मों को दृढ़तम कर्म माना जाता है; क्योंकि इस कर्म में चार प्रकार की योग्यता नहीं है और ये कर्म उदय में आयेंगे और फल देंगे ही देंगे।
पहली बात यह है कि यह कर्म पापरूप से बंध गया अथवा पुण्यरूप से बंध गया, वह वैसा का वैसा ही रहेगा; उसमें परिवर्तन की बिल्कुल सम्भावना नहीं है। जिस प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभागरूप से कर्म बद्ध हो गया है, वह कर्म उसी रूप (अवस्था) में रहते हुए सुनिश्चित समय पर पूर्णरूप से फल देगा।
दूसरी बात - स्थिति-अनुभाग कम होने की सम्भावना के लिए कुछ अवकाश ही नहीं है; क्योंकि परिभाषा में ही कर्म के उदीरणा की भी अयोग्यता स्पष्ट रूप से बताई गयी है। अपकर्षण और उदीरणा के कारण ही कर्मों के स्थिति अनुभाग घटते हैं।
तीसरी बात - पूर्वबद्ध कर्म में स्थिति - अनुभाग बढ़ने के लिए भी मानो रोक ही लगा दी गयी है; क्योंकि उत्कर्षण (स्थिति- अनुभाग का बढ़नेरूप कार्य) का अभाव भी परिभाषा में विशद शब्दों में बताया है।
चौथी बात - पूर्वबद्ध कर्म में अपकर्षण के कारण स्थिति - अनुभाग घटते तो भी कुछ अवकाश मिलता, लेकिन अपकर्षण के कारण स्थिति- अनुभाग के कम होने का भी अवसर नहीं है ।