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नक्शों में दशकरण (जीव जीता-कर्म हारा)
निकाचितकरण इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि बंध आदि दस करणों में से बंध तथा
आचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा ४५० में - सत्तारूप कार्य पहले ही हो चुके हैं। अब फिर से इस कर्म के लिए बंध,
निम्नप्रकार का विषय आया है “ये तीनों (उपशांत द्रव्यकर्म, निधत्ति तथा सत्ता होने का काम नहीं । संक्रमण आदि चार करणों का तो निकाचित के
निकाचित कर्म) प्रकार के कर्म अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यंत ही पाये जाते स्वरूप में ही निषेध है - इन छहों (बंध, सत्ता, संक्रमण, उदीरणा,
हैं; क्योंकि अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करने के प्रथम समय में ही उत्कर्षण, अपकर्षण) में से सबको मानो प्रवेश के लिए ही पाबंदी है।
सभी कर्मों के तीन करण युगपत् व्युच्छिन्न अर्थात् नष्ट हो जाते हैं।" उपशांतकरण गर्भित कर्म भी (उदय के पहले अर्थात् सत्तारूप अवस्था में
जयधवला पुस्तक १३, पृ. २३१ पर भी यह विषय आया है। अवस्थित कर्म) मिट्टी के ढेले के समान ही है; क्योंकि न उसका उदय
उसका हिन्दी अनुवाद हम आगे दे रहे हैं - आयेगा न उदीरणा होगी। यह करण वर्तमान में निष्क्रिय ही है।
__ "उसी अनिवृत्तिकरणकाल के प्रथम समय में अप्रशस्त निधत्तिकरण का कार्य भी निकाचितकरण स्वयं कर रहा है। ऐसी
उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण व्युच्छिन्न होते हैं। अवस्था में अब निकाचित कर्म प्रकृतियों को उदय में आना छोड़कर
सभी कर्मों के अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करने के प्रथम अन्य कोई मार्ग/उपाय ही नहीं है।
समय में ही ये तीनों ही करण युगपत् व्युच्छिन्न हो जाते हैं, यह उक्त इसलिए पुण्य या पापरूप से पूर्वबद्ध निकाचित प्रकृतियों का मात्र
कथन का तात्पर्य है। उदय में आकर फल देना ही काम रहता है । इसकारण ही सुकुमार, सुकौशल,
उसमें जो कर्म अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण के योग्य गजकुमार, पंचपांडव आदि भावलिंगी मुनिराजों को भी पापरूप निकाचित
होकर पुनः उदीरणा के विरुद्ध स्वभावरूप से परिणत होने के कारण प्रकृतियों का फल भोगना अनिवार्य हो गया था।
उदयस्थिति में अपकर्षित होने के अयोग्य है वह उस प्रकार से स्वीकार ___इसीप्रकार भरत चक्रवर्ती आदि तद्भव मोक्षगामी पुरुषों को भी
की गई अप्रशस्त उपशामना की अपेक्षा उपशान्त ऐसा कहलाता है। निकाचितरूप पुण्यकर्म का फल भोगना अनिवार्य हो गया था। इसी
उसकी उस पर्याय का नाम अप्रशस्त उपशामनाकरण है। कार्य को 'नियोग' शब्द से भी कहा जाता है।
___इसी प्रकार जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्षण के अविरुद्ध पर्याय के - इसका अर्थ निधत्ति-निकाचितरूप से बद्ध कर्मप्रकृतियों का फल
योग्य होकर पुनः उदय और परप्रकृतिसंक्रमरूप न हो सकने की प्रतिज्ञारूप भोगना ही अनिवार्य है; ऐसी धारणा समाज में अति दृढ़ हो गयी है;
से स्वीकृत है उसकी उस अवस्था विशेष को निधत्तीकरण कहते हैं। तथापि यह बात सर्वथा इस ही प्रकार की नहीं है।
____ परन्तु जो कर्म उदयादि इन चारों के अयोग्य होकर अवस्थान की कर्म में निधत्ति-निकाचितरूप से बद्ध कर्म का फल भोगना ही
प्रतिज्ञा में प्रतिबद्ध है, उसकी उस अवस्थान लक्षण पर्यायविशेष को अनिवार्य है, यह सापेक्ष कथन है। इसकी दूसरी विवक्षा भी हमें शास्त्र के
निकाचनाकरण कहते हैं। आधार से समझना आवश्यक है।
इसप्रकार ये तीनों ही करण इससे पूर्व सर्वत्र प्रवर्तमान थे, यहाँ खेद इस विषय का है कि समाज को दूसरी विवक्षा का ज्ञान कराया
अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में उनकी व्युच्छित्ति हो जाती है। इनके ही नहीं जाता। मात्र कर्म बलवान ही है; यही समझाया जाता है।
व्युच्छिन्न होने पर सभी कर्म अपकर्षण, उत्कर्षण, उदीरणा और पर निधत्ति-निकाचितरूप कर्मों का नाश भी जीव अनिवृत्तिकरण
प्रकृतिसंक्रमण इन चारों के योग्य हो जाते हैं यह इस सूत्र का भावार्थ है।" गुणस्थान में प्रवेश करके करता है, यह विषय बताया ही नहीं जाता। AnnajuAlhy and Dombaran kerts
॥ नक्शों में दशकरण समाप्त ।।