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९. निधत्तिकरण
• सत्ता में स्थित जिस कर्म का संक्रमण व उदीरणा नहीं होते, उसे नित्ति कहते हैं । निधतिकरण आठों कर्मों में होता है।
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← निधत्ति में उत्कर्षण, अपकर्षण दोनों हो सकते हैं। ← उदय में आकर फल देगा ही, यह विशेषता ।
← निधत्ति कर्म - पुण्य-पाप दोनों रूप हो सकता है। फल देने की मुख्यता है । इसलिए इस निधत्ति को दृढ़तर कर्म कहते हैं ।
• संक्रमण और उदीरणा के अयोग्य प्रकृतियों को निधत्ति कहते हैं ।
कर्म का संक्रमण नहीं होता, इसका अर्थ जब जैसा पुण्य अथवा पापरूप से कर्म बंधा हुआ है; वह उसीरूप में अर्थात् पाप, पापरूप में ही रहेगा वह पुण्यरूप संक्रमित नहीं होता
• दूसरी बात यह समझना चाहिए कि निधत्तिरूप कर्म की उदीरणा नहीं होगी अर्थात् यह अपने सुनिश्चित समय के पहले उदय में आकर फल नहीं देगा।
• आठवें गुणस्थान के पहले का निधत्ति कर्म फल दिए बिना नहीं रहेगा, यह नियम है। नौवें गुणस्थान में निधत्तिरूप कर्म का नियम से नाश होता है।
• निधत्तिरूप कर्म में उत्कर्षण होता है; इसका अर्थ जो जिस फलदानरूप शक्ति से सहित अथवा जिस समय में फल देना है, वह समय की अवधि / काल मर्यादा बढ़ सकती है; तथापि फल जिस स्वभावरूप से बँध गया है, उसी स्वभावरूप से फल देगा। स्थिति - अनुभाग में बदल हो सकता है।
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निधत्तिकरण
• इसलिए निधत्तिरूप कर्म दृढ़तर कर्म कहे जाते हैं। जैसे - सती सीता का वर्तमानकालीन जीवन पवित्रता में आदर्शरूप होने पर भी उनको पूर्वजन्म के निधत्तिरूप पापकर्म के कारण ही वनवास का प्रसंग, अग्निपरीक्षा, गर्भावस्था में वनवास इत्यादि पापमय फल मिलता रहा ।
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• यदि पुण्यमय निधत्तिकर्म नहीं होता तो शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ जैसे जीवों को कामदेवत्व, चक्रवर्तित्व और तीर्थंकर पद ऐसे सर्वोत्तम पुण्य के पदों की प्राप्ति कैसे हो जाती ?
• निधत्तिरूप कर्म, जीव को फल देता ही है, यह कथन सापेक्ष है। • यदि जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करता है तो कर्म का निधत्तिपना नियम से नष्ट होता है; ऐसा कर्मकाण्ड गाथा ४५० में कथन आया है। इस विषय को मूल से अवश्य देखना चाहिए, जिससे जीव को कर्म का भय नष्ट हो जाता है।
निधत्ति को ही अन्य शब्दों में फिर से स्पष्ट कर रहे हैं -
" संक्रमण और उदीरणा के अयोग्य प्रकृतियों को निधत्ति कहते हैं; " यह मूल परिभाषा है।
परिभाषाकार आचार्यों ने निधत्ति कर्म किस-किस करण के लिए अयोग्य है, इसका स्पष्ट उल्लेख किया है।
हम यहाँ इस परिभाषा के आधार से ही यह निधत्ति कर्म किसकिस कार्य के लिए योग्य है, यह जानने का प्रयास करते हैं; जिससे हमें आचार्यों के कथन का भाव स्पष्ट समझ में आ सकें।
१. पहला विषय - यह प्रतीत होता है कि इस प्रकृति का बंध तो हुआ ही है। यदि बंध ही नहीं होता तो इस कर्म की सत्ता कैसी बनती ? अर्थात् बंधरूप कार्य हुआ ही है; यह विषय स्पष्ट हुआ है।
२. दूसरा विषय - यदि कर्म के बंध का स्वीकार हुआ है तो बंध के