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________________ ८. उपशान्तकरण उपशांतकरण एवं उपशम इन दोनों में जो अन्तर / भेद हैं, वह स्पष्ट समझ में आना चाहिए। इसलिए हम यहाँ दोनों को आमने-सामने तुलना के साथ विशदरूप से दे रहे हैं। • नया बंधनेवाला कर्म कुछ काल तक बद्ध अवस्था में ही रहेगा, इसकी उदीरणा नहीं होगी। इस उदीरणा के अभावरूप सत्तास्थित कर्म की अवस्था को उपशान्तकरण कहते हैं । • सत्तास्थित कर्मद्रव्य की जब तक उदीरणा नहीं होती तब तक की कर्म की अवस्था को उपशान्तकरण कहते हैं। → पूर्वबद्ध सत्तास्थित कर्म ← नया बँधनेवाले कर्म की सत्ता अलग दिखाई गई है। १. जो कर्म उदय में नहीं आ सके, सत्ता में रहे, वह उपशांतकरण कहलाता है। २. सत्ताविषै तिष्ठता अपनी-अपनी स्थिति को धरै हैं ज्ञानावरणादिक कर्म का द्रव्य जा विषै, जाकी जावत् काल उदीरणा न होय तावत् काल उपशांतकरण कहिए । ३. उपशांतकरण आठों कर्मों में होता है। ४. कर्म की दस अवस्थाओं में उपशांतकरण है। ५. धर्म (वीतरागता) प्रगट करने के लिए उपशांतकरण नहीं है। ६. उपशांतकरण भव्य - अभव्य दोनों के होता है। कुछ उपयोगी ७. उपशांतकरण अनादि है; क्योंकि प्रत्येक भव्य-अभव्य जीव के कर्म में उपशांतकरण होता है। ८. कर्म में उपशांतकरण यह अवस्था कर्म की अपनी उपादानगत पात्रता से होता है। 3D Kailash Data Annanji Adhyatmik Dakara Bok (१३) उपशान्तकरण मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय → कर्म मिथ्यात्व से रहित स्थान औपशमिक सम्यक्त्व का काल इस समय जीव मिथ्यादृष्टि रहता है। उपशम अनिवृत्तिकरणकाल अपूर्वकरणकाल अधःकरणकाल उप रि त न स्थि ति ← सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्यादृष्टि करण - लब्धि प्राप्त जीव, यहाँ आते ही मिथ्यात्व कर्म के रहितपने के कारण क्षायिक सम्यक्त्व के स्थि अधस्तन समान निर्मलभाव रूप औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। ति १. आत्मा के विशेष परिणामों के निमित्त से एवं कर्म की निजभक्ति के कारणवश कर्म का प्रगट न होना, उपशम है। जैसे - कतक आदि द्रव्य के संबंध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है। २. परिणामों की विशुद्धता से कर्मों की शक्ति का अनुद्भूत रहना अर्थात् प्रगट न होना, यह कर्म का उपशम है। ३. उपशम मात्र दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय कर्म में होता है, अन्य किसी भी कर्म में नहीं । ४. कर्मों की दस अवस्थाओं में उपशम करण नहीं है। ५. उपशम संबंधी औपशमिक भाव स्वयं धर्मरूप ही है। ६. औपशमिक भाव मात्र भव्य जीवों को होता है। ७. उपशम (कर्म की अवस्था) सादि है; क्योंकि किसी भी जीव को धर्म प्रगट होगा तो उसे दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमपूर्वक ही होता है। ८. मोहनीय कर्म में उपशम, अधःकरणादि धर्मसन्मुख परिणामों से अथवा साक्षात् वृद्धिंगत धर्म परिणामों से होता है।
SR No.009459
Book TitleNaksho me Dashkaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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