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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार दुर्वारस्मरबाणपन्नगविषव्यासक्तमुग्धो जनः,
शेष: कामविडंबितो हि विषयान् भोक्तुं न मोक्तुं क्षमः ।।१।। रागी पुरुषों में तो एक महादेव शोभित होते हैं, जिन्होंने अपनी प्रियतमा पार्वती को आधे शरीर में धारण कर रखा है और वीतरागियों में जिनदेव शोभित हैं, जिनके समान स्त्रियों का संग छोड़नेवाला दूसरा कोई नहीं है। शेष लोग तो दुर्निवार कामदेव के बाणरूप सॉं के विष से मूर्च्छित हुए हैं, जो काम की विडम्बना से न तो विषयों को भलीभाँति भोग ही सकते हैं और न छोड़ ही सकते हैं।"
उक्त छन्द में सरागी देवी-देवताओं में महादेव को प्रधान कहा है और वीतरागियों में जिनदेव को प्रधान कहा है। इससे भी सिद्ध होता है कि जैनदर्शन में वीतरागता को ही धर्म माना गया है।
यह बात इतनी स्पष्ट है कि इसे जैनेतर साहित्यकार भी अच्छी तरह जानते थे, जानते हैं और जानते रहेंगे; पर आज जो देखने में आ रहा है, उससे लगता है कि जैनी लोग अपनी इस बात को भूलते जा रहे हैं और शुभराग को धर्म मानकर, उसी में मग्न हैं।
मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि आप अपने बाप-दादाओं के बहीखाते उठाकरदेखिये। उनमें सबसे पहले 'श्रीवीतरागायनमः' लिखा मिलेगा। ___पुराने जमाने में दीपावली के अवसर पर घर के दरवाजे पर 'श्री वीतरागाय नमः' लिखा जाता था और जब कोई पत्र लिखते थे तो सबसे पहले सबसे ऊपर 'श्री वीतरागाय: नमः' लिखते थे। शादी की लग्न पत्रिका में भी तथा निमंत्रण पत्रिकाओं में भी सबसे ऊपर 'श्री वीतरागाय नम:' लिखा जाता था। 'वीतरागता ही धर्म है' ह्र यह बात पीढ़ियों से हमारे रोम-रोम में समाहित रही है। हम सब अपने जन्म से यही प्रार्थना करते आ रहे हैं कि ह्न
इन्द्रादिक पद नहीं चाहूँ, विषयन में नाहिं लुभाऊँ।
रागादिक दोष हरीजै, परमातम निजपद दीजै ।।' १. पण्डित दौलतराम : देवस्तुति का अंतिम छन्द
आठवाँ प्रवचन
११७ पर आज न मालूम क्या हो गया हमें; जो हम राग को ही धर्म मानने पर उतारू हैं। इस बात पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
जैनियों में भी दिगम्बर और श्वेताम्बर नाम से दो सम्प्रदाय हैं। पण्डितजी ने दोनों सम्प्रदायों में समागत गृहीत मिथ्यात्व संबंधी विकृतियों की भी खुलकर आलोचना की है। पर विशेष ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय संबंधी गृहीत मिथ्यात्व की चर्चा इसी पाँचवें अधिकार में की है और दिगम्बरों में प्राप्त होनेवाले गृहीत मिथ्यात्व संबंधी विकृतियों की चर्चा छठवें-सातवें अधिकार में की गई है।
दिगम्बर-श्वेताम्बर रूप में हुआ जैनियों का यह विभाजन अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के अन्तिम काल में हुआ था। ____ आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन मुनियों का एक विशाल संघ उज्जैनी नगरी में चातुर्मास कर रहा था। आहार को जाते समय आचार्य श्री भद्रबाहु ने एक नग्न बालक को भूख से बिलखते हुए देखा। उस दृश्य को देखकर उन्होंने अपने निमित्तज्ञान से जाना कि यहाँ निकट भविष्य में १२ वर्ष तक का भीषण अकाल पड़नेवाला है। __ जब उन्होंने यह बात सभी संघ को बताई और कहा कि यहाँ अपना निर्वाह होना संभव नहीं है; अतः हम सभी को कम से कम १२ वर्ष के लिए दक्षिण भारत की ओर चले जाना चाहिए।
उस समय मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य भी वहीं पर थे। यह सुनकर वे भी दीक्षित हो गये।
जब सभी संघ दक्षिण की ओर विहार करने लगा; तब जनता के अनुरोध पर संघ का एक छोटा हिस्सा वहीं रह गया। शेष सभी मुनिराज आचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत की ओर विहार कर गये। नव दीक्षित सम्राट चन्द्रगुप्त भी उनके साथ थे।
भीषण अकाल के कारण उज्जैनी की स्थिति जब ऐसी हो गई कि मुनिराज आहार करके लौटकर जंगल की ओर जाते थे तो लोग उनका